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संपादकीय
दशाश्रुतस्कन्ध का आठवाँ कल्प नामक अध्ययन कल्पसूत्र के नाम से प्रसिद्ध है । दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति के अन्तर्गत कल्प-अध्ययन की नियुक्ति गाथाओं को 'कल्पनियुक्ति' कहा जाता है । दशाश्रुतस्कन्ध के ऊपर अनेक टीका, वृत्ति, पर्याय आदि विवरण उपलब्ध हैं । आ. श्री माणिक्यशेखरसूरि ने केवल कल्प-अध्ययन का विवरण करते हुए अवचूरि की रचना की है। प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रधान सम्पाद्य वस्तु वही है । विषय को स्पष्टता से समझने के लिये प्रस्तुत सम्पादन में प्राचीन चूर्णि को भी स्थान दिया है। प्राचीन चूर्णी, पवित्रकल्पसूत्र' पुस्तक से उद्धृत है । आ.श्रीमाणिक्यशेखर सू. कृत अवचूर्णि प्रथमतया ही प्रकाशित हो रही है । भाण्डारकर भारतीय प्राच्य विद्या संशोधन संस्थान (भाण्डारकर ओरिएंटल रिसर्च सेन्टर) स्थित हस्तप्रत के आधार पर यह संशोधन सम्पन्न हुआ है ।
जैसा कि पहले कहा है-'कल्पनियुक्ति' दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति का एक भाग है। अत: इसकी नियुक्ति गाथाओं का क्रम दो प्रकार का रखा है। एक-दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति का क्रम, दूसरा-कल्पअध्ययन की नियुक्ति गाथाओं का क्रम । परिशिष्ट में दोनों प्रकार के क्रमों का उल्लेख किया है । कल्पनियुक्ति गाथाओं में भी न्यूनाधिक्य दिखाई देता है। प्रस्तुत सम्पादन में उभय चूर्णि में विवृत या तो उल्लिखित गाथाओं को ही स्थान दिया है। 'नियुक्तिपञ्चक'२ में
विज्जो ओसह निवयाहिवई (गाथा-१३) इस गाथा को कल्पनियुक्ति में नहीं गिना है। क्योंकि यह प्राचीन चूर्णि में व्याख्यात नहीं है । लेकिन आ. श्रीमाणिक्यशेखरसूरि म. की चूर्णि में इसकी व्याख्या है, इसलिये उसे यहाँ स्थान दिया है ।
पसत्थ विगतिग्गहणं तत्थ वि य असंचइय उ जा उत्ता ।
संचइय ण गेण्हंती, गिलाणमादीण कज्जट्ठा ॥ (८२/२१ नि.पं.) इस गाथा को नियुक्तिपञ्चक में अतिरिक्त गिना है । दोनों चूर्णियों में इसकी व्याख्या न होने से इसका यहाँ समावेश नहीं किया गया है ।
डगलच्छारे लेवे छड्डाण गहणे तहेव धरणे य । पुंछण गिलाण मत्तग, भायण भंगावि हेतू से ॥ (गा. ८८ नि.पं.)
१. सम्पादक-मुनिराजश्री पुण्यविजयजी म., प्रकाशक: साराभाई नवाब । २. जैन विश्व भारती, लाडनं से प्रकाशित ।