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अनुसार वे जैन तपस्वियों के अलावा अन्य नहीं है, जो “एलेक्जेंडर महान् के समय के भारतीय जिमनोसोफिस्ट ( भ्रमणकारियों ? ) के प्रसिद्ध विवरणों में भी उल्लिखित प्रतीत होते हैं । "
अब मोहनजोदड़ो की इन नग्न योगिक आकृतियों के बारे में यह कहा जाता है कि " ये मूर्तियाँ स्पष्टरूप से संकेत करती हैं कि सिन्धुघाटी के लोग ताम्रपाषाण युग में न केवल योग का अभ्यास करते थे, बल्कि योगियों की प्रतिमाओं को पूजते भी थे ।" आर. बी. प्रो. रामप्रसाद चंदा कहते हैं, "कुछ सिन्धु मोहरों में उत्कीर्ण न केवल बैठे हुए देवता योगमुद्रा में हैं और उस दूरवर्ती काल में सिन्धुघाटी में योग के फैलाव के साक्ष्य योग की कायोत्सर्ग मुद्रा को दिखाते हैं।” उससे आगे “कायोत्सर्ग मुद्रा विशिष्टरूप से जैनों की है । यह मुद्रा बैठे हुए की नहीं है, बल्कि खड़े हुए की है। आदिपुराण, पुस्तक 18 में कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन ऋषभ अथवा वृषभ की तपस्या के सम्बन्ध में है। कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हुए जैन ऋषभ की प्रतिमा, ऐसी ही चार प्रतिमाओं को एक शिला में दर्शाते हुए ईसा की द्वितीय शताब्दी में समावेशित करने योग्य कर्जन पुरातत्त्व संग्रहालय, मथुरा में चित्र क्र. 12 में प्रदर्शित है। प्रारम्भिक राजवंशों के समय की मिस्र की शिल्पकलाओं में बाजुओं को दोनों तरफ लटकाए हुए खड़ी मूर्तियाँ शामिल हैं। लेकिन यद्यपि ये प्रारम्भिक मिस्र की मूर्तियाँ और पुरातात्त्विक यूनानी कोरोई (?) लगभग समान मुद्रा दर्शाती हैं, तथापि उनमें परित्याग की भावना की कमी है, जो सिन्धु मोहरों की खड़ी आकृतियों और कायोत्सर्ग मुद्रा में जैनों की प्रतिमाओं का चित्रण करती हैं। ऋषभ नाम का अर्थ बैल है और बैल ही जैन ऋषभ का चिह्न है।"
प्रो. प्राणनाथ विद्यालङ्कार कहते हैं, “पट्टिकाओं में जोड़े गए
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