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में यह सबसे पुरानी पुस्तक मानी जाती है। पूर्वी और पश्चिमी दोनों प्रकार के विद्वानों के बहुमत के द्वारा माना जाता है कि इस वेद का निर्माण कभी 4500 ई. पू. और 2000 ई. पू. अथवा 1500 ई. पू. के मध्य लम्बी अवधि में प्रचलित अलग-अलग मन्त्रों के रूप में हुआ है। भारत की उत्तर-पश्चिमी सरहदों से वैदिक आर्यों के आगमन का काल भी लगभग 3500 से 2500 ई. पू. निर्धारित किया जाता है। भगवान् ऋषभ और उनका पुत्र महान् सम्राट भरत स्पष्टरूप से इन समयों से अधिक पहले के हैं। प्रो. एस. श्रीकांत शास्त्री जैनपरम्परा की प्राचीनता को कम से कम 20,000 ई. पू. तक ले जाते हैं और जोर देकर कहते हैं कि जैनधर्म का वास्तविक निवासस्थल निश्चितरूप से भारतवर्ष में ही कहीं पर था, हालांकि इस ही समय वे यह मानने का रुझान रखते हैं कि वेदों की बलि प्रथा का प्रारम्भ होने से पूर्व जैनधर्म देशी आर्यों की संस्कृति का दृष्टिकोण मात्र था।
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की प्रागैतिहासिक सिन्धुघाटी सभ्यता की युगनिर्मापक खोज जैनधर्म की प्राचीनता पर एक नवीन और महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है। सर जान मार्शल जोरदार ढंग से कहते हैं कि “सिन्धु और वैदिक संस्कृतियों की तुलना निर्विवादरूप से दर्शाता है कि वे संस्कृतियाँ असम्बद्ध थीं। वैदिकधर्म साधारणरूप से मूर्तिपूजक नहीं है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के घरों में अग्निकुण्ड स्पष्टरूप से गायब है।'' मोहनजोदड़ो में कई नग्न आकृतियाँ खोजी गई हैं, जो श्रेष्ठ पुरुषों को प्रदर्शित करती हैं, जो योगियों के अलावा अन्य नहीं हैं।" और नग्नता जैन श्रमणों के लक्षणों में से एक रहा है। भगवान् ऋषभ स्वयं नग्न हो गए थे और उनकी प्रतिमाएँ भी ऐसी ही बनाई जाती हैं। यहाँ तक कि ऋक्संहिता में “मुनयः वातवसनाःवायु लपेटे हुए कुँवारे योगियों" का उल्लेख है। डा. ए. वैबर के
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