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________________ नाम और चिह्न हिन्दुओं और जैनों की प्राचीन धार्मिक संस्कृति का सिन्धु लोगों की संस्कृति के साथ सम्बन्ध को उजागर करते हुए प्रतीत होंगे। यह भी रेखाङ्कित किया जा सकता है कि मेरी समझ के अनुसार सिन्धु मोहर क्र. 449 पर लेख जिनेश्वर अथवा जिनेश पढ़ा जाता है।” वे इस मत के भी हैं कि सिन्धु लोग श्री, ह्री, क्लीं इत्यादि ऐसे तान्त्रिक देवताओं को पूजते थे, जो प्रसंगवश जैन पंथियों के महत्त्वपूर्ण स्त्री देवता हैं। आगे वे कहते हैं, "यह रेखाङ्कित करना रोचक है कि पुराण और जैन धार्मिक पुस्तक दोनों ही (सिन्धु लोगों के) इन देवताओं को उच्च स्थान प्रदान करते हैं ।" उस दूरवर्ती काल में सिन्धुघाटी में जैनधर्म के अस्तित्व के कई अन्य साक्ष्य हैं, जैसे कि सिर और गर्दन को ढके हुए तपस्वियों की आकृतियाँ, जो सातवें तीर्थङ्कर सुपार्श्व को प्रदर्शित कर सकती हैं और अन्य भी। प्रो. एस. श्रीकान्त शास्त्री कहते हैं, “ई.पू. 30002500 की, नग्नता और योग की अपनी संस्कृति के साथ, बैल और अन्य चिह्नों को पूजनेवाली सिन्धुसभ्यता की जैनधर्म से समानता है और इसलिए सिन्धु सभ्यता आर्य अथवा वैदिक आर्य मूल की नहीं मानी जाती है।” क्योंकि माना जाता है कि जैनधर्म अनार्य अथवा कम से कम प्राक् वैदिक आर्य मूल का है। यद्यपि प्रो. हुमायूँ कबीर के शब्दों में "कुछ विद्वान् रहे हैं, जो मोहनजोदड़ो के पूर्णरूप से प्राक् वैदिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने में संदेह करते हैं । वे मानते हैं कि आर्यों का वास्तविक घर भारत था और मोहनजोदड़ो आर्य संस्कृति के विकास का प्रारम्भिक स्तर मात्र था।” फिर भी विद्वानों की साधारण प्रवृत्ति इस सिद्धान्त के पक्ष में रही है कि सिन्धु लोग द्रविड वंश परम्परा के थे I आदरणीय फादर डॉ. हीरास जोरदार ढंग से इस मान्यतावाले हैं कि मोहनजोदड़ो लोग द्रविड थे, कि उनके शिलालेखों की भाषा विशुद्धरूप 42
SR No.009248
Book TitleJain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherDharmoday Sahitya Prakashan
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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