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________________ मरुदेवी के पुत्र और भगवान् अग्निध्र (मनु के पौत्र, ब्रह्मा के पुत्र) के पौत्र थे, उन्होंने योग का अभ्यास किया, महान् ऋषियों के द्वारा उन्हें श्रद्धाञ्जलि अर्पित की गई और उन्होंने जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया। वास्तव में विभिन्न परम्पराओं के मध्य जैनधर्म के संस्थापक ऋषभ होने के विषय में यह स्वीकृति इतनी विलक्षण और प्रभावशाली है कि इसकी वैधता पर सन्देह नहीं किया जा सकता है। जैसा कि प्रो. स्टीवेनसन कहते हैं कि “जैनों और ब्राह्मणों में सहमति इतनी कभी-कभार होती है कि मैं नहीं समझता कि इस विषय में हम उनकी धारणा को कैसे अस्वीकृत करें, अन्य किस स्थान पर वे इस प्रकार सहमत होते हैं।" अतः संक्षेप में बैरिस्टर चम्पतराय के शब्दों में, “हिन्दुधर्म ने स्वयं ही जैनधर्म की प्राचीनता और हिन्दुओं द्वारा विष्णु के अवतार के रूप में माने जानेवाले जैनधर्म के संस्थापक ऋषभदेव को हमेशा स्वीकार किया है और कभी भी विवाद नहीं किया है। वे पुराणों में उल्लिखित हैं, जो उनकी ऐतिहासिकता को प्रश्नों के परे रखते हैं। उनकी माता का नाम मरुदेवी और उनके पुत्र का नाम भरत बताते हैं, जिसके कारण ही पूर्वकाल में भारत को भारतवर्ष नाम से पुकारा जाता था। भागवत पुराण के अनुसार ऋषभदेव विष्णु के अवतारों में 9वें थे और अवतार के रूप में माने जानेवाले वामन, राम, कृष्ण आदि से क्रम में पूर्ववर्ती हैं। अब क्योंकि गणना क्रम में पन्द्रहवें वामन अवतार का विशेषरूप से उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है, इसका तात्पर्य है कि उल्लेखयुक्त मंत्रों की रचना की अपेक्षा समय की दृष्टि से वह पूर्व का होना चाहिये और जितना अधिक ऋषभदेव वामनावतार से क्रम में पूर्व हैं, उतना अधिक पहले वे मौजूद थे।"स्वामी कर्मानन्द भी वैदिक साहित्य के अपने तलस्पर्शी और तुलनात्मक अध्ययन 37
SR No.009248
Book TitleJain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherDharmoday Sahitya Prakashan
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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