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________________ व्यावहारिक और मौलिक दृष्टि से जैनपरम्परा के द्वारा लिखित विवरण से मान्य हैं।" प्रो. आर. डी. रानाडे ऋषभदेव के गूढवादी जीवन का विवरण देते हुए जैनों के इस प्रथम तीर्थङ्कर को सही तरीके से प्रकट करते हैं, “एक और अलग प्रकार का गूढवादी जिसका शरीर के प्रति पूर्णरूपेण असावधानता ही उसके भागवत् साक्षात्कार का सर्वोत्कृष्ट चिह्न है।" डा. एस. सी. विद्याभूषण- "जैनधर्म स्वयं ही सृष्टि के प्रारम्भ तक पीछे पहुँचता है। मुझे जोर देकर कहने में कोई संदेह नहीं है कि वेदान्त और अन्य सिद्धान्तों से जैनदर्शन अधिक पूर्वकालिक है।" डा. एन. एन. बासु- “संभवतः ऋषभदेव लेखन की कला को खोजने में प्रथम थे। प्रतीत होता है कि उन्होंने ब्रह्मविद्या के प्रचारप्रसार के लिए ब्राह्मी लिपि का आविष्कार किया और यही कारण है कि वे 8 वें अवतार के रूप में जाने गए। वे भारतीय शासक नाभिराज की रानी मरुदेवी से जन्मे थे और भागवत में 22 अवतारों में से 8वें के रूप में उल्लिखित हैं।" डा. सर राधाकृष्णन भी दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि “भागवत पुराण इस धारणा का समर्थन करता है कि ऋषभ जैनधर्म के संस्थापक थे। साक्ष्य हैं, जो दिखाते हैं कि बहुत पीछे लगभग ई. पू. प्रथम शताब्दी में भी प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव को पूजनेवाले लोग मौजूद थे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वर्द्धमान अथवा पार्श्वनाथ से पूर्व भी जैनधर्म चारों ओर फैला हुआ था। यजुर्वेद तीन तीर्थङ्करों के नामों का उल्लेख करता है- ऋषभ, अजितनाथ और अरिष्टनेमि।" ऋग्वेद के मंत्रों में उसके प्राचीनतम टीकाकार कात्यायन 35
SR No.009248
Book TitleJain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherDharmoday Sahitya Prakashan
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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