SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के समय में खूनी बलियों ने अपना प्रथम प्रोत्साहन शाही संरक्षण में प्राप्त किया। यहाँ तक कि प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् प्रो. वी. पी. वादयार भी कहते हैं कि “जैन शास्त्रों के अनुसार ऋषभदेव का पोता मरीची भौतिकवादी था। क्योंकि वेद उस ही भौतिकवादी भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं, यह निश्चितरूप से उसके कारण ही था कि वे (ऋग्वेद आदि) लोकप्रिय हुए। परिणामस्वरूप साधु मरीची के स्मरण में वेदों और पुराणों में कई मंत्र पाये जाते हैं और कई स्थानों पर जैन तीर्थङ्करों के भी उल्लेख हैं। अतः जैनधर्म के अस्तित्व को वैदिक युग में स्वीकार न करने का कोई तर्क हमारे पास नहीं है।' वास्तव में ऐसा कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है, जो बता सके कि अमुक समय में वैदिक धर्म या उसके किसी परवर्ती विकास से जैनधर्म अलग हुआ और न ही दोनों व्यवस्थाओं के मूलभूत सिद्धान्तों और आवश्यक लक्षणों के बीच कोई चिह्नित समानता है, जो उस सम्भावना का समर्थन कर सके। पूर्णतया अहिंसक मत, सर्व चैतन्यवादी मान्यता, सूक्ष्म और विशिष्ट कर्म सिद्धान्त, एक रचनाकार और रचना सिद्धान्त का निषेध और ऐसी ही अन्य विशेषताओं के साथ जैनधर्म न केवल पूर्णतया मौलिक व्यवस्था है, अपितु अन्य सभी व्यवस्थाओं से सर्वथा स्वतंत्र भी है। अपने उद्गम में यह न केवल गैर आर्य और प्राक् आर्य है, इस आशय से कि ये संज्ञाएँ अब साधारणतया समझी जाती हैं, लेकिन साथ ही आदिकालीन और सर्वथा देशी भी है। हिन्दु मतान्तर के इस सिद्धान्त का सफलतापूर्वक खण्डन करते हुए बैरिस्टर सी. आर. जैन निष्कर्ष निकालते हैं कि “अतः पावन तीर्थङ्करों का यह मत जैनधर्म, हिन्दुधर्म की पुत्री या बागी संतान होन से दूर, वास्तव में निःसंदेहरूप से उस प्राचीन मत का आधार है।" और यदि वहाँ कोई ऋण था, तो वह दूसरी ओर अधिक था। 29
SR No.009248
Book TitleJain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherDharmoday Sahitya Prakashan
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy