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________________ प्रो. जैकोबी कहते हैं, “निष्कर्ष में मैं अपने दृढ विश्वास को कहना चाहूँगा कि जैनधर्म अन्य सभी से एकदम भिन्न और स्वतंत्र, एक मौलिक व्यवस्था है और इसलिए यह प्राचीन भारत में दार्शनिक विचार और धार्मिक जीवन के अध्ययन के लिए बहुत महत्त्व का है।" भारतीयदर्शन की व्यवस्था में जैनधर्म का स्थान विषय पर चर्चा करते हुए एम. एम. डॉ. गंगानाथ झा निष्कर्ष निकालते हैं, "जैनदर्शन निःसंदेह बौद्धधर्म, वेदांत, सांख्य, न्याय और वैशेषिक व्यवस्थाओं से कुछ सिद्धान्त साम्यता रखता है, लेकिन यह उसके स्वतंत्र उद्गम और मुक्त विकास को असिद्ध नहीं करता है। यदि उसमें अन्य भारतीय व्यवस्थाओं के साथ कुछ समानताएँ हैं, तो उसकी अपनी विशेषताएँ और चिह्नित अन्तर भी हैं।" प्रो. जी. सत्यनारायण मूर्ति भी पाते हैं, "उसके कुछ सिद्धान्त अपने-आप में विशिष्ट हैं और जैनमत पर व्यक्तिवाद की छाप छोड़ते हैं।" डॉ. गियरनॉट कहते हैं कि "जैनधर्म बहुत मौलिक, स्वतंत्र और व्यवस्थित सिद्धान्त है।" प्रो. चिन्ताहरन चक्रवर्ती- “यद्यपि हमारे ज्ञान के इस स्तर पर जैन और ब्राह्मण वस्तुओं की तुलनात्मक प्राचीनता का निश्चय करना सम्भव नहीं है, फिर भी जैनधर्म में वास्तविक और तर्कपूर्ण स्तर आकस्मिक प्रेक्षक का भी ध्यान आकर्षित करने में असफल नहीं होता है।" अन्य विद्वान् कहते हैं, "हम यह कहने के लिए साहसी हो सकते हैं कि अहिंसा का धर्म, जैनधर्म सम्भवतया उतना ही प्राचीन है, जितना वैदिकधर्म, यदि प्राचीनतर नहीं। कोई संदेह नहीं है कि अहिंसा का धर्म उतना ही प्राचीन था, जितने स्वयं वेद था।" 30
SR No.009248
Book TitleJain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherDharmoday Sahitya Prakashan
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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