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सम्बन्धित है। यह स्पष्टरूप से जैनधर्म की प्राचीनता को ब्राह्मण रचना के एकदम प्रारम्भिक समय तक अथवा स्वयं ब्राह्मणधर्म उत्पत्ति से पूर्व के समय तक भी पीछे ले जाता है।
फिर भी कुछ विद्वान् हैं जो अधिकतया गहरा पूर्वाग्रह और अन्य भावनात्मक तर्कों के कारण मानने का आग्रह करते हैं और तर्क करते हैं कि जैनधर्म ब्राह्मणधर्म की एक शाखा है या बौद्धों की तरह जैन भी मात्र हिन्दुधर्म के मतान्तर हैं, चाहे उनका धर्म जैनधर्म से एकदम स्वतंत्र और अधिक प्राचीन ही क्यों न हो ।
जैसा कि पूर्व कथन से स्पष्ट हो जाना चाहिये कि ऐसी धारणा रखने का वास्तव में कोई भी पुष्ट कारण नहीं है । वेदों से पुराणों तक ब्राह्मण साहित्य और अन्य मध्ययुगीन साहित्य में जैनों का, उनके धर्म का, उनके तीर्थङ्करों का और उनके सिद्धान्तों का भी कभी उपहास करते हुए और बुरा बताते हुए, तो कभी प्रशंसा और अनुमोदना करते हुए, लेकिन प्रायः गलत समझते हुए और गलत अर्थ लगाते हुए अनगिनत बार उल्लेख है। कुछ स्थानों पर जिन या कोई तीर्थङ्कर या जैन तपस्वी के प्रति भक्ति को श्रुतियों और स्मृतियों के द्वारा कहे गये धार्मिक प्रचलनों से भी अधिक उच्च दर्जा दिया है। और यदि ऐसी कथाओं को खोजा जा सकता है, जिसके फलानुसार जैनधर्म किसी वेदों के अनुयायी के द्वारा प्रसारित किया गया, जो अपने मूलवर्ग से मतभिन्न था, तो जैन परम्परा में भी उतनी ही प्राचीन समान कथाएँ हैं कि वह भगवान् ऋषभ का पोता मरीची था, जिसने जिन के तपस्वी मत से शिथिल होकर झूठे सिद्धान्तों का उपदेश दिया, जिसमें से बाद में जिन के अहिंसक मत से प्रतिकूल वैदिक और उसी जैसे 363 पाखंड - मतों का निर्माण हुआ । वास्तव में जैन परम्परा के अनुसार वह दसवें तीर्थङ्कर शीतलनाथ का समय था, जब ब्राह्मणधर्म ने अपनी प्रथम उपस्थिति दर्ज की और बीसवें तीर्थङ्कर
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