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________________ का प्रयास किया।" अब यह कथा प्रायः सभी ब्राह्मण पुराणों में उपस्थित है और यह राजा वेणु पद्म और वरुण पुराणों में मानवजाति के मूल ब्रह्मा से वंशक्रम में छठा घोषित किया गया है, जबकि भागवत में ग्यारहवाँ, गरुडपुराण में तेरहवाँ और विष्णु एवं शेष अन्य पुराणों में रचनाकार ब्रह्मा के पुत्र और प्रथम पुरुष स्वयंभूमनु से वंशक्रम में नौवां माना गया है। यह भी कहा जा सकता है कि वेणु ने असुरों को जैनधर्म का उपदेश दिया था। श्री घोशाल कहते हैं “सभी पुराणों से यह स्पष्ट होता है कि वेणु प्रारम्भ से ही पशुबलि और ब्राह्मणों का विरोध करता था और वह न केवल नास्तिक और वेदविरोधी था, बल्कि जैन भी था।" जैनधर्म के उद्गम के बारे में विभिन्न पुराणों में कुछ अन्य कथाएँ भी हैं। लेकिन उनके बारे में रोचक तथ्य है कि वे अपने मत के किसी भी महत्त्वपूर्ण अनुयायी को उसी प्रकार से सर्वप्रथम किसी न किसी गुरु के प्रभाव से जैनधर्म में धर्मान्तरित करते हैं और फिर यह नया धर्मान्तरित व्यक्ति अपने नये मत का उपदेश देता है। यह स्पष्टरूप से दो विषय सिद्ध करता है, पहला कि प्रारम्भिक वैदिक काल में ब्राह्मण मत से जैनधर्म में धर्मान्तरित होना बहुत साधारण बात थी और दूसरा कि प्रारम्भिक समयों में भी जैनधर्म स्थापित धर्म था और गैर आर्य देशी वंशों में अधिक लोकप्रिय था, जिन्हें आर्यों के द्वारा असुर, दैत्य, राक्षस आदि कहा जाता था। और चूँकि जैसा मैकडोनल कहते हैं, "हिन्दु पुराणों में बहुत कुछ पुराना मौजूद है और वे हमेशा महाभारत और मनु से उधार नहीं लेते हैं, लेकिन स्वयं वेदों और कुछ अन्य प्राचीन सङ्कलनों से जानकारियाँ प्राप्त करते हैं।' इन कहानियों का महत्त्व अत्यधिक नहीं आंका जा सकता है, खासकर वेणु की कहानी जो सभी पुराणों से
SR No.009248
Book TitleJain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherDharmoday Sahitya Prakashan
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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