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तपस्वी थे।
अतः इसमें कोई संदेह नहीं है कि राम के समय में जैनधर्म मौजूद था और जैनों के 20वें तीर्थङ्कर भगवान् मुनिसुव्रतनाथ, जो राजगृह के राजकुमार और राम के वरिष्ठ समकालीन थे, स्वयं राम की तरह ही वास्तविक व्यक्ति थे।
इसके अलावा वह मुनिसुव्रत का ही समय था, जब राजा वसु चैद्योपरिचर के दरबार में “वैदिक यज्ञों में पशुओं अथवा वनस्पति उत्पादों की बली करनी चाहिए'' इस विषय पर तीक्ष्ण शास्त्रार्थ रखा गया था। यद्यपि राजा वसु ने अपना निर्णय पशुबलि के समर्थन में दिया और तब ही से यह भयानक कृत्य प्रारम्भ हुआ। वसु की यह कथा जैन और ब्राह्मण दोनों परम्पराओं में व्यावहारिकरूप से समान है, जो इसकी सत्यता का प्रमाण है।
शेष तीर्थङ्करों में प्रथम ऋषभ, द्वितीय अजितनाथ और सातवें सुपार्श्व का उल्लेख भी वेदों में खोजा जा सकता है।
अब राजा वेणु की एक विचित्र कथा है, जो मूलतः वेदों का अनुयायी हिन्दु था, लेकिन एक जैन मुनि के निर्देश पर जैन साधु बन गया और इसलिए पापी कहलाता है और उसकी मान्यता का परिवर्तन पतन माना गया। श्री एस. सी. घोशाल (एम.ए., बी.एल., पुराण काव्यतीर्थ इत्यादि) कहते हैं, "यह मात्र अकृत्रिम है, जैसा कि कृति (अर्थात् हिन्दु पद्मपुराण) जिसमें सम्बन्धित कथा है, उन उपदेशों को प्रस्तुत करती है, जो जैनधर्म के लिए अनुकूल नहीं हैं, लेकिन इस कहानी से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह एक ऐतिहासिक तथ्य होना चाहिये कि वेणु नामक हिन्दु राजा जैनधर्म में धर्मान्तरित हुआ। जहाँ तक मैं जानता हूँ यह तथ्य उन विद्वानों के ध्यान में नहीं आया, जिन्होंने जैनधर्म की प्राचीनता को स्थापित करने
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