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इसके अलावा जैसा माननीय जे. केनेडी कहते हैं, “जैन परम्पराएँ कृष्णकथा के प्राचीनतम स्वरूप का प्रतिनिधत्व करती हैं।"
वास्तव में नेमिनाथ या अरिष्टनेमि के बारे में जैन परम्पराएँ जैसा कि उनके हरिवंश (पुराण), अरिट्ठणेमि चरिउ और अन्य कृतियों में सङ्कलित है, ब्राह्मण परम्पराओं के द्वारा पूर्णरूप से पुष्ट है। अरिष्टनेमि के विशिष्ट उल्लेख वेदों, उनकी टीकाओं और हिन्दु पुराणों में है, जो स्पष्ट रूप से जैन तीर्थङ्कर को दर्शाते हैं। वैदिक मंत्रों में वे उस व्यक्ति की तरह वर्णित हैं, जो जन्म और मरण के समुद्र को पार करने में समर्थ है, जो हिंसा को मिटानेवाला है, जो जीवों को चोट न पहुँचाने के साधक हैं आदि। सुप्रसिद्ध वैदिक विद्वान् जैसे स्वामी विरुपाक्ष वादियर (एम.ए., वेदरत्न) भी पूर्ण सहमत हैं कि ये वैदिक और पौराणिक उल्लेख निसंदेह किसी अन्य को नहीं, बल्कि जैन तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि को ही इंगित करते हैं। जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि महाभारत में भी कम से कम दो स्थानों पर जिनेश्वर विशेषण के साथ उनके नाम का उल्लेख है।
डॉ. प्राणनाथ विद्यालङ्कार ने बेबीलोनिया के (चालडी) राजा नेबूचडनजार (ईसा पूर्व 1140 लगभग) की एक अनुदान ताम्रपट्टिका का प्रकाशन 19 मार्च 1935 के “टाइम्स ऑफ इंडिया' (साप्ताहिक) में किया, जिसे उन्होंने काठियावाड़ में खोजा था। उनके आशय के अनुसार इस दस्तावेज ने उद्घाटित किया है कि "वह राजा नेबूचडनजार, जो रेवानगर (काठियावाड़ में) का स्वामी था और जो सु (सुमेर) जाति से सम्बन्धित था। वह यदु राजा के क्षेत्र (द्वारका) में आया। उसने एक मंदिर बनाया और सम्मान प्रकट किया और रैवत पर्वत के सर्वोत्तम देव भगवान् नेमि के लिए निरन्तर अनुदान किया। प्रो. प्राणनाथ स्वयं कहते हैं, “यह शिलालेख महान् ऐतिहासिक मूल्य का है। यह जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए बहुत
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