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उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा तथा उपासकाचारादि ग्रन्थोंके कर्ता श्रीअमितगत्याचार्य विक्रमकी ११वीं शताब्दीमें हुए हैं; योगशास्त्रादि बहुतसे ग्रन्थोंकी रचना करनेवाले श्वेताम्बराचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरि राजा कुमारपालके समयमें अर्थात् विक्रमकी १३ वीं शताब्दीमं (सं० १२२६ तक) मौजूद थे; विवेकविलासके का श्वेताम्बर साधु श्रीजिनदत्तसूरि वि० की १३ वीं शताब्दीमें हुए हैं; और पं० मेधावीका अस्तित्व-समय १६ वीं शताब्दी निश्चित है। अापने धर्मसंग्रह-श्रावकाचारको विक्रम संवत् १५४१ में बनाकर पूरा किया है।
अब पाठकगगा स्वयं ममझ सकते हैं कि यह ग्रन्थ (उमास्वामि-श्रावकाचार ), जिममें बहुत पीछेसे होनेवाले इन उपयुक्त विद्धानोंके ग्रन्थोंमे पद्य लेकर उन्हें ज्योंका त्यों या परिवर्तित करके रक्खा है, कैसे सूत्रकार भगवदुमास्वामीका बनाया हुआ हो सकता है। सूत्रकार भगवान् उमास्वामीकी अमाधारण योग्यता और उस ममयकी परिस्थितिको, जिस ममयमें कि उनका अवतरण हुअा है, मामने रखकर परिवर्तित पद्यों तथा ग्रन्थके अन्य स्वतन्त्र बने हुए पद्योंका सम्यगवलोकन करनेसे माफ. मालूम होना है कि यह ग्रन्थ उक्त सूत्रकार भगवान्का बनाया हुअा नहीं है। बल्कि उनमे दशां शताब्दी पीछेका बना हुआ है।
विरुद्धकथन
इम ग्रन्थके एक पद्यम व्रतके, सकल और विकल ऐमे, दो भेदांका वर्णन करते हुए लिखा है कि मकल व्रतके ५३ भेद और विकल व्रतके १२ भेद हैं । वह पद्य इस प्रकार है :--
"सकलं विकलं प्रोक्तं द्विभेदं व्रतमुत्तमं ।
सकलस्य त्रिदश भेदा विकलस्य च द्वादश ।। २५६ ।। परन्तु सकल व्रतके वे १३ भेद कौनमे हैं ? यह कहींपर इम शास्त्र में