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प्रकीर्णक-पुस्तकमाला इन १५ कर्मादानोंके स्वरूपकथनमें जिन जिन काँका निषेध किया गया है, प्रायः उन सभी कोंका निषेध उमास्वामिश्रावकाचारमें भी श्लोक नं० ४०३ से ४१२ तक पाया जाता है। परन्तु १४ कर्मादान त्याज्य हैं, वे कौन कौनसे हैं और उनका पृथक् पृथक् स्वरूप क्या है. इत्यादि वर्णन कुछ भी नहीं मिलता । योगशास्त्रके उपर्युक्त चारों श्लोकोसे मिलते जुलत उमास्वामिश्रावकाचारमं निम्नलिखित श्लोक पाये जाते हैं, जिनसे मालूम हो सकता है कि इन पद्यामं कितना और किम प्रकारका परिवर्तन किया गया है :
"अंगारभ्राष्टकरणमयः स्वर्णादिकारिता। इष्टकापाचनं चेति त्यक्तव्यं मुक्तिकांक्षिभिः ॥४४॥ नवनीतवसामग्रमध्वादीनां च विक्रयः । द्विपाचतुष्पाञ्च विक्रयो न हिताय मतः कचित ॥४८६|| कंटनं नामिकावेधो मुष्कच्छेदोंधिभेदनम् । कर्णापनयनं नाम*निलाछनमुदीरितम् ।।४११।। केकीकुक्कटमार्जारसारिकाशुकमंडलाः । पोप्यंत न कृतप्राणिघाताः पारावता अपि ॥४०॥
-उमा० श्रा० रत्नकांडश्रावकाचारादि ग्रंथोंके प्रणेता विच्छिरोमणि स्वामी समन्तभद्राचार्यका अस्तित्व विक्रमकी दूसरी शताब्दीके लगभग माना जाता है; पुरुषार्थमिद्धिय पायादि ग्रन्थोंके रचयिता श्रीमदमृतचद्रसूरिने विक्रमकी १० वीं शताब्दीमें अपने अस्तित्वसे इस पृथ्वीतलको मुशोभित किया ऐसा कहा जाता है, यशस्तिलकके निर्माणकर्ता श्रीसोमदेवसूरि विक्रमकी ११ वीं शताब्दीमें विद्यमान थे और उन्होंने वि० सं० १०१६ (शक सं०८८१) में शस्तिलकको बनाकर समास किया है, धर्मपरीक्षा
* 'निलांछन' का जब इससे पहले इस श्रावकाचारमं कहीं नामनिर्देश नहीं किया गया, तब फिर यह लक्षणनिर्देश कैसा ?