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अनेकान्त-रस-लहरी अथवा विधान करके निषेध करना परस्पर विरुद्ध, असंगत और अप्रामाणिक समझा जाता है उसी प्रकार तुम्हारा यह एक चीजको छोटी कह कर बड़ी कहना अथवा एक ही वस्तुमें छोटेपनका विधान करके फिर उसका निषेध कर डालना-उसे बड़ी बतलाने लगना-क्या परस्पर विरुद्ध, असंगत और अप्रामाणिक नहीं समझा जायगा ? और जिस प्रकार अन्धकार तथा प्रकाश दोनों एक साथ नहीं रहते उसो प्रकार छोटापन और बड़ापन दोनों गुणों (धर्मों) के एक साथ रहने में क्या विरोध नहीं आएगा ? ___ यह सब सुनकर विद्यार्थी कुछ सोच-सीमें पड़ गया और मन-ही-मन उत्तरकी खोज करने लगा; इतनेमें अध्यापकजी उसकी विचार-समाधिको भंग करते हुए बोल उठे_ 'इसमें अधिक सोचने-विचारनेकी बात क्या है ? एक ही चीनको छोटी-बड़ी दोनों कहने में विरोध तो तब आता है जब जिस दृष्टि अथवा अपेक्षासे किसी चीजको छोटा कहा जाय उसी दृष्टि अथवा अपेक्षासे उसे बड़ा बतलाया जाय । तमने मध्यकी तीन-इंची लाइनको ऊपरकी पाँच-इंची लाइनसे छोटी बतलाया है, यदि पाँच-इंचवाली लाइनकी अपेक्षा हो उसे बड़ी बतला देते तो विरोध प्राजाता, परन्तु तमने ऐसा न करके उसे नीचेकी एक इंच-वाली लाइनसे ही बड़ा बतलाया है, फिर विरोधका क्या काम ? विरोध वहीं आता है जहाँ एक ही दृष्टि (अपेक्षा) को लेकर विभिन्न प्रकारके कथन किए जायँ, जहाँ विभिन्न प्रकारके कथनोंके लिये विभिन्न दृष्टियों-अपे. क्षाओंका आश्रय लिया जाय वहाँ विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं रहता। एक ही मनुष्य अपने पिताकी दृष्टिसे पुत्र है और अपने पुत्रकी दृष्टि से पिता है-उसमें पुत्रपन और पितापनके