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छोटापन और बड़ापन दोनों धर्म एक साथ रहते हुए भी जिस प्रकार दृष्टिभेद होनेसे विरोधको प्राप्त नहीं होते उसी प्रकार एक दृष्टिसे किसी वस्तुका विधान करने और दूसरी दृष्टिसे निषेध करने अथवा एक अपेक्षासे 'हाँ' और दूसरी अपेक्षासे 'ना' करनेमें भी विरोधकी कोई बात नहीं है। ऐसे ऊपरी अथवा शब्दोमें ही दिखाई पड़ने वाले विरोधको 'विरोधाभास' कहते हैं-वह वास्तविक अथवा अर्थकी दृष्टिसे विरोध नहीं होता; और इस लिये पूर्वापरविरोध तथा प्रकाश-अन्धकार-जैसे विरोधके साथ उसकी कोई तुलना नहीं की जासकती । और इसी लिये तुमने जो बात कही वह ठीक है। तुम्हारे कथनमें दृढता लानेके लिए ही मुझे यह सब स्पष्टीकरण करना पड़ा है। आशा है अब तुम छोटे-बड़ेके तत्त्वको खूब समझ गये होगे। विद्यार्थी हाँ, खूब समझ गया, अब नहीं भूलूंगा।
अध्यापक-अच्छा, तो इतना और बतलाओ-'इन ऊपर-नीचेकी दोनों बड़ी-छोटी लाइनोंको यदि मिटा दिया जाय
और मध्यकी उस नं० १ वालो लाइनको ही स्वतन्त्र रूपमें स्थिर रक्खा जाय-दूसरी किसी भी बड़ी-छोटी चीजके साथ उसकी तुलना या अपेक्षा न की जाय,तो ऐसी हालतमें तुम इस लाइन नं०१ को स्वतन्त्र-भावसे-कोई भी अपेक्षा अथवा दृष्टि साथमें न लगाते हुए-छोटी कहोगे या बड़ी?' ___विद्यार्थी-ऐसी हालतमें तो मैं इसे न छोटी कह सकता हूँ और न बड़ी। ___ अध्यापक-अभी तुमने कहा था 'इसमें दोनों (छोटापन
और बड़ापन) गुण एक साथ हैं। फिर तुम इसे छोटी या बड़ी क्यों नहीं कह सकते ? दोनों गुणोंको एक साथ कहनेकी वचनमें शक्ति न होनेसे यदि युगपत् नहीं कह सकते तो क्रमसे