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अनेकान्त-रस-लहरो तो कह सकते हो ? वे दोनों गुण कहीं चले तो नहीं गये ? गुणोंका तो प्रभाव नहीं हुआ करता-भले ही तिरोभाव (आच्छादन) हो जाय, कुछ समयके लिये उनपर पर्दा पड़ जाय और वे स्पष्ट दिखलाई न पड़ें।
विद्यार्थी फिर कुछ रुका और सोचने लगा ! अन्तको उसे यही कहते हुए बन पड़ा कि-'विना अपेक्षाके किसीको छोटा या बड़ा कैसे कहा जासकता है ? पहले जो मैंने इस लाइनको 'छोटी' तथा 'बड़ी' कहा था वह अपेक्षासे ही कहा था, अब
आप अपेक्षाको बिल्कुल ही अलग करके पूछ रहे हैं तब मैं इसे छोटो या बड़ी कैसे कह सकता हूँ, यह मेरी कछ भी समझमें नहीं आता ! आप ही समझाकर बतलाइये।' ___ अध्यापक-तुम्हारा यह कहना विल्कुल ठीक है कि 'विना अपेक्षाके किसीको छोटा या बड़ा कैसे कहा जासकता है ? अर्थात नहीं कहा जासकता। अपेक्षा ही छोटापन या बड़ेपनका मापदण्ड है-मापनेका गज़ हैं ? जिस पेक्षा-गजसे किसी वस्तविशेषको मापा जाता है वह गज़ यदि उस वस्तके एक अशमें आजाता है-उसमें समा जाता है तो वह वस्तु 'बड़ी' कहलाती है। और यदि उस वस्तुसे बढ़ा रहता-बाहरको निकला रहता है तो वह 'छोटी' कही जाती है । वास्तव में कोई भी वस्त स्वतन्त्ररूपसे अथवा स्वभावसे छोटी या बड़ी नहीं है-स्वतन्त्ररूपसे अथवा स्वभावसे छोटो या बड़ी होने पर वह सदा छोटी या बड़ी रहेगी, क्योंकि स्वभावका कभी अभाव नहीं होता। और इसलिये किसी भी वस्तुमें छोटापन और बड़ापन ये दोनों गुण परतन्त्र, पराश्रित, परिकल्पित, आगेपित, सापेक्ष अथवा परापेक्षिक ही होते हैं, स्वाभाविक नहीं। छोटेके अस्तित्व-विना बड़ापन और बड़ेके अस्तित्वविना छोटापन कहीं होता ही नहीं। एक अपेक्षासे जो वस्त