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________________ ३८ अनेकान्त-रस-लहरी हो अर्थात् यह पूरी तौरसे मालूम हो कि दानके समय दातारको कौटुम्बिक तथा आर्थिक आदि स्थिति कैसी थी, किन भावोंकी प्रेरणा से दान किया गया है, किस उद्देश्यको लेकर तथा किस विधि-व्यवस्था के साथ दिया गया है और जिन्हें लक्ष्य करके दिया गया है वे सब पात्र हैं, कुपात्र हैं या अपात्र, थवा उस दानकी कितनी उपयोगिता है। इन सबकी तर-तमतापर ही दान तथा उसके फलकी तर-तमता निर्भर है और उसीके आधारपर किसी प्रशस्त दानको प्रशस्ततर या प्रशस्ततम अथवा छोटा-बड़ा कहा जा सकता है । जिनके दानोंका विषय ही एक-दूसरेसे भिन्न होता है उनके दानी प्राय: समान फलके भोक्ता नहीं होते और न समान फलके अभोक्ता होनेसे ही उन्हें बड़ा-छोटा कहा जा सकता है । इस दृष्टिसे उक्त दस-दस हज़ार के चारों दानियों में से किसी के विषय में भी यह कहना सहज नहीं है कि उनमें कौन बड़ा और कौन छोटा दानी है । चारोंके अलग-अलग दानका विषय बहुत उपयोगी है और उन सबकी अपने अपने दानविषयमें पूरी दिलचस्पी पाई जाती है ।' I अध्यापक वीरभद्रजीकी व्याख्या चल ही रही थी, कि इतने घंटा बज गया और वे यह कहते हुए उठ खड़े हुए कि - 'दान और दानी के बड़े-छोटे पनके विषय में आज बहुत कुछ विवेचन दूसरी कक्षामें किया जा चुका है उसे तुम मोहनलाल विद्यार्थीसे मालूम कर लेना, उससे रही-सही कचाई दूर हो कर तुम्हारा इस विषयका ज्ञान और भी परिपुष्ट हो जयगा और तुम एकान्त मभिनिवेश के चक्कर में न पड़ सकोगे ।' अध्यापकजीको उठते देखकर सब विद्यार्थी खड़े हो गये और बड़े विनीतभाव से कहने लगे - 'आज आपने हमारा बहुत बड़ा अज्ञानभाव दूर किया हैं। अभी तक हम बड़े-छोटे के तत्त्वको पूरी तरह से नहीं समझे
SR No.009236
Book TitleAnekant Ras Lahari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1950
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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