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प्रास्ताविक अहिंसाके साथ जिस सत्यको विशेष महत्व प्राप्त है, जिसे अपनाने और जीवनमें उतारनेकी सर्वत्र दुहाई दी जाती है, बड़े बड़े धर्माचार्य और देशनेतादिक जिसका बराबर उपदेश करते हुए पाये जाते हैं और जिसपर विश्वको प्रतिष्ठित बतलाया जाता है वह सत्य क्या है और उसे वास्तवमें कितने लोग जानते पहचानते अथवा अनुभव करते हैं, यह एक बड़ी ही विकट समस्या है । यहाँ इसके विशेष विचार अथवा ऊहापोहका अवसर नहीं है; इतना कह देना ही पर्याप्त होगा कि सत्यका जितना अधिक महत्व है उतना ही कम लोगोंको उसका परिचय अथवा अनभव है, बहुधा धर्माचार्य और देशनेता तक उसे ठीक पहचानते नहीं और यों ही रूढिवश अथवा अपना गौरव ख्यापित करनेके लिये उसका उपदेश कर जाते हैं। इसीसे जनताको सत्यके पहचाननेकी कसौटी नहीं मिल पाती और न सत्य उस. के द्वारा वस्तुतः अपनाया अथवा जीवन में उतारा ही जाता है । अहिंसाको भी इसीसे उसके ठीक रूपमें पहचाना नहीं जाता और नतीजा इस सबका यह हो रहा है कि संसारमें व्यर्थवैर विरोध एवं संघर्षकी सृष्टि होती चली जाती है और विश्वकी शान्ति बराबर भंग होकर अशान्ति बढ़ रही है।
जिस सत्यपर सारा विश्व प्रतिष्ठित है और जो विश्वके अंग-अंगमें-उसकी प्रत्येक वस्तुमें-प्रोत-प्रोत है वह सत्य अनेकान्तात्मक है-सर्वथा एकान्तात्मक अथवा एक ही गुण-धर्मरूप नहीं है । अनेकान्त जिसका आत्मा हो उसे जानने-पहचाननेके लिये अनेकान्तको जानना और समझना कितना आवश्यक है इसे बतलानेकी जरूरत नहीं । वस्ततः अनेकान्तका रहस्य समझे विना सत्यको जाना और पहचाना ही नहीं जा सकता
और सत्यको जाने-पहचाने विना उसे ठोक तौरपर व्यवहारमें नहीं लाया जा सकता और न जीवनमें उतारा ही जा सकता है।