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अनेककान्त-रस-लहरी
होकर अपराधके भागी बनते हैं। साथ ही, मांस-भोजनसे उनके हृदयमें निर्दयता-कठोरता-स्वार्थपरतादि-मूलक तामसी भाव उत्पन्न होता है, जो आत्मविकासमें बाधक होकर उन्हें पतनकी
ओर ले जाता है, और इस लिये मांस-दानसे मांसभोजीका भी वास्तविक उपकार नहीं होता-खासकर ऐसी हालतमें जबकि , अन्नादिक दूसरे निर्दोष एवं सात्विक भोजनोंसे पेट भले प्रकार भरा जा सकता है और उससे शारीरिक बल एवं बौद्धिक शक्तिमें भी कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। अतः ऐसे दानका पारमार्थिक अथवा आत्मोपकार-साधनकी दृष्टिसे कोई अच्छा फल नहीं कहा जा सकता-भले ही उसके करनेवालेको लोकमें स्वार्थी राजा-द्वारा किसी ऊपरी पद या मन्सबकी प्राप्ति हो जाय । जब पारमाथिक अथवा आत्मोपकारकी दृष्टिसे ऐसे दानका कोई बड़ा फल नहीं होता तो ऐसा दान देनेवाला बड़ा दानी भी नहीं कहा जा सकता।
हथियार हिंसाके उपकरण होनेसे उनका दान करनेवाला हिंसामें-परपीड़ामें-सहायक तथा उसका अनुमोदक होता है
और जिसे दान दिया जाता है उसे उनके कारण हिंसामें प्रोत्साहन मिलता है और वे प्रायः दूसरोंके घातमें ही काम आते हैं। इस तरह दाता और पात्र दोनों के ही लिये वे आत्महितका कोई साधन न होकर आत्महनन एवं पतनके ही कारण बनते हैं,
और इस लिये हथियारों का दान पारमार्थिक दृष्टिसे कोई महान् दान नहीं होता-आक्रमणात्मक-युद्ध के सैनिकोंके लिये तो वह
और भी सदोष ठहरता है; तब उसका दानी बड़ा दानी कैसे हो सकता है ?
घायल सैनिकों की महम-पट्टीके लिये स्वेच्छासे दवादारूका