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प्रतिक्रमण-आवश्यक ]
[८६ दुखिया प्रति करुणा अने दुश्मन प्रति मध्यस्थता, शुभ भावना प्रभु चार आ, पामो हृदयमां स्थिरता. १. अति ज्ञानवंत अनंत शक्ति, दोषहीन आ आत्म छे, अ म्यानथी तरवार पेठे, शरीरथी विभिन्न छे; हुं शरीरथी जुदो गणुं, अ ज्ञानबळ मुजने मळो, ने भीषण जे अज्ञान मारुं नाथ! ते सत्वर टळो. २. सुख-दुःखमां, अरि-मित्रमां, संयोग के वियोगमां, रखडं वने वा राजभुवने, राचतो सुखभोगमां; मम सर्वकाळे सर्व जीवमां, आत्मवत् बुद्धि बधी, तुं आपजे मुज मोह कापी, आ दशा करुणानिधि. प्रमादथी प्रयाण करीने, विचरतां प्रभ अहीं तहीं. अकेन्द्रियादि जीवने, हणतां कदी डरतो नहीं; छेदी विभेदी दुःख दई, में त्रास आप्यो तेमने, करजो क्षमा मुज कर्म हिंसक, नाथ विनवू आपने. *मन माझं दोषित थाय तो हुँ दोष अतिक्रम जाणतो, दोषित थतुं आचारमां तो दोष व्यतिक्रम मानतो; विषयो तणी प्रवृत्तिमां हुं अतिचारी धारतो, विषयो तणी आसक्तिमां हुं अनाचारी समजतो. मुज वचन वाणी उच्चारमां, तलभार विनिमय थाय तो, जो अर्थ मात्रा पद महीं, लवलेश वधघट होय तो; यथार्थ वाणी भंगनो, दोषित प्रभु हुं आपनो, आपी क्षमा मुजने बनावो, पात्र केवळ बोधनो. १०. अर्थ :-मननी शुद्धिमा क्षति थवी, मनमां विकारभाव उत्पन्न थवो ते अतिक्रम छे; शीलव्रतर्नु अर्थात् व्रतमय प्रतिज्ञानुं उल्लंघन करवानो भाव थवो ते व्यतिक्रम छे; विषयोमा वर्तवू ते अतिचार छ; अने ते विषयोमा अतिशय आसक्त थई जर्बु ते अनाचार छे.