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[ प्रतिक्रमण- आवश्यक
कोटि वर्षनुं स्वप्न पण, जाग्रत थतां शमाय; तेम विभाव अनादिनो, ज्ञान थतां दूर थाय. ११४. छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तुं कर्म; नहि भोक्ता तुं तेहनो, अ ज धर्मनो मर्म ११५. अ ज धर्मथी मोक्ष छे, तुं छो मोक्षस्वरूप; अनंत दर्शन ज्ञान तुं, अव्याबाध स्वरूप. शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम; बीजुं कहिये केटलूं? कर विचार तो पाम. मोक्ष कह्यो निजशुद्धता, ते पामे ते पंथ; समजाव्यो संक्षेपमां, सकळ मार्ग निर्ग्रथ. आत्मभ्रांति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद्य सुजाण; गुरुआज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार ध्यान. जो इच्छो परमार्थ तो, करो सत्य पुरुषार्थ; भवस्थिति आदि नाम लई, छेदो नहि आत्मार्थ. सर्व जीव छे सिद्धसम, जे समजे ते थाय; सद्गुरुआज्ञा जिनदशा, निमित्त कारणमांय. देह छतां जेनी वर्ते देहातीत; ते ज्ञानीना चरणमां, हो वंदन अगणित.
दशा,
११६.
११७.
१२३.
१२६.
१३०.
१३५.
१४२.
पाठ ७ मो
श्री अमितगति - आचार्य विरचित सामायिक पाठनां केटलांक अवतरणो ( हरिगीत छंद )
सौ प्राणी आ संसारना, सन्मित्र मुज व्हालां थजो, सद्गुणमां आनंद मानुं, मित्र के वेरी हजो;
+ सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेसु जीवेसु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ १ ॥