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प्रतिक्रमण-आवश्यक]
जड चेतननो भिन्न छे, केवळ प्रगट स्वभाव; ओकपणुं पामे नहि, त्रणे काळ द्वय भाव. जे संयोगो देखिये, ते ते अनुभव दृश्य; ऊपजे नहि संयोगथी, आत्मा नित्य प्रत्यक्ष. ६४. जडथी चेतन ऊपजे, चेतनथी जड थाय; अवो अनुभव कोईने क्यारे कदी न थाय. ६५. कोई संयोगोथी नहीं, जेनी उत्पत्ति थाय; नाश न तेनो कोईमां, तेथी नित्य सदाय. ६६. चेतन जो निजभानमां, कर्ता आप स्वभाव; वर्ते नहि निजभानमां, कर्ता कर्म-प्रभाव. ७८. कर्मभाव अज्ञान छे, मोक्षभाव निजवास; अंधकार अज्ञान सम, नाशे ज्ञानप्रकाश. ६८. जे जे कारण बंधना, तेह बंधनो पंथ; ते कारण छेदक दशा, मोक्षपंथ भवअंत. राग, द्वेष, अज्ञान मे, मुख्य कर्मनी ग्रंथ; थाय निवृत्ति जेहथी, ते ज मोक्षनो पंथ. १००. आत्मा सत् चैतन्यमय, सर्वाभास रहित; जेथी केवळ पामिये, मोक्षपंथ ते रीत. १०१. मत दर्शन आग्रह तजी, वर्ते सद्गुरुलक्ष; लहे शुद्ध समकित ते, जेमां भेद न पक्ष. ११०. वर्ते निजस्वभावनो, अनुभव लक्ष प्रतीत; वृत्ति वहे निजभावमां, परमार्थ समकित. १११. वर्धमान समकित थई, टाळे मिथ्याभास; उदय थाय चारित्रनो, वीतरागपद वास. ११२. केवळ निजस्वभाव-, अखंड वर्ते ज्ञान; कहिये केवळज्ञान ते, देह छतां निर्वाण. ११३.
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