________________
प्रतिक्रमण-आवश्यक]
[१५ रुककर सातिशय पुण्य का बन्ध होता है। भावपूर्वक सामायिक करने से सुख और शान्ति की प्राप्ति होती है। आत्मतत्व की प्राप्ति का मूल कारण 'सामायिक' ही है। एकाग्रतारूप साम्यता से ही जीव को निष्कर्मरूप अवस्था प्राप्त होती है। __अभव्य जीव को भी 'द्रव्य-सामायिक' के प्रभाव से नौवे ग्रैवेयक के अहमिंद्र पद की प्राप्ति हो जाती है, तो फिर ‘भावसामायिक' से केवलज्ञान क्यों नही प्राप्त होगा? अवश्य होगा। _ 'सामायिक' करने से पंचेन्द्रिय-विषय एवं अंतरंग कषाय का नाश होता है और पदार्थ के प्रति ममता छूट जाती है। छह काय के जीवों के प्रति समता प्रकट होती है। _ 'सामायिक' का प्रारम्भिक अभ्यासी श्रावक शुभोपयोग से सातिशय पुण्य बाँध कर अभ्युदय युक्त सर्व सुख भोग कर मनुष्य भव की प्राप्ति करता है; और फिर निर्ग्रन्थ-मुनि होकर शुद्धोपयोग को प्राप्त करके संवर पूर्वक समस्त कर्मों की निर्जरा करते हुए मोक्षपद की प्राप्ति कर लेता है। 'सामायिक करने का स्थान :
. जिस स्थान में, चित्त में विक्षेप करने के कारण न हों, जहाँ अनेक लोगों के वाद-विवादिक का कोलाहल न हो, अधिक असंयमी जीवों का आवागमन न हो, स्त्रियों का, नपुंसकों का, विशेष आना जाना न हो, गीत, नृत्य वाद्य यंत्रों आदि का प्रचार समीप में न हो, तिर्यन्चों एवं पक्षियों का संचार न हो, जहाँ बहुत शीत तथा उष्णता की, प्रचण्ड पवन की, वर्षा की बाधा न हो, डाँस, मच्छर, मक्खी, सर्प, बिच्छु इत्यादिक जीवों के द्वारा कोई बाधा न हो, ऐसे विक्षेप रहित एकान्त स्थान हो, वन हो या जीर्ण बाग का मकान