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[प्रतिक्रमण-आवश्यक
( “सामायिक" का स्वरूप, लाभ एवं उसके भेद ।
सम्-राग-द्वेष रहित, आय-उपयोग की प्रवृति। राग-द्वेष की परिणति का अभाव करके साम्यभावरूप परिणति को प्राप्त करना 'सामायिक' है। सम्-राग-द्वेष की निवृति, आय-प्रशमादिरूप ज्ञान का लाभ। राग-द्वेष में माध्यस्थ भाव रखना ‘सामायिक' है। मोह-क्षोभ रहित आत्मा का परिणाम ही 'सामायिक' है। सम्यकत्व, ज्ञान, संयम
और तप इन चार प्रकार की अवस्था को 'सामायिक' कहते हैं। अपने स्वरूप की साधना में भूल न हो जाय उसके लिए शरीर की शुद्धि के साथ शुद्ध कपड़े पहिन कर एकान्त में स्थिरता पूर्वक अपने शुद्ध स्वरूप का विचार करना ही 'सामायिक' है। 'सामायिक' क्यों करना चाहिये :. आर्तध्यान, रौद्रध्यान रूप संसार प्रवृत्ति की निवृत्ति और धर्मध्यान रूप प्रवृत्ति में सर्व जीवों के प्रति वैर विरोध को त्यागकर संयम तप और त्याग भावना के भावरूप उदासीनता को प्राप्त कर - समताभाव की सिद्धि के लिए सामायिक करने में आवे तो वह वीतरागता की प्राप्ति का कारण है। . _ 'सामायिक' आत्म कल्याण के हेतु करने में आती है। जितनेजितने अंशो में विषय कषाय घट जावे और परिणामों में वीतरागता व शान्ति बढ़ती जावे, उतने उतने अंशो में धर्मस्थान की प्राप्ति के लिए मुमुक्षुओं का समायिकादि षट् आवश्यक करना परम कर्तव्य है। 'सामायिक' करने से लाभ:
‘सामायिक' करने वाले मुमुक्षु के सब प्रकार के पापास्रव