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[प्रतिक्रमण-आवश्यक
विशेषार्थ पोताना शुद्ध ज्ञाता–दृष्टा (ज्ञायक) स्वभावने ओळखी तेमां जे एकाग्र थाय छे तेने शुद्धता प्रगटे छे । २५ ।
__ आत्मानु अने बाह्य पदार्थोनुं स्वरूप :एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मलः साधिगमस्वभावः। बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः॥२६॥
अन्वयार्थ :- [मम] मारो [ आत्मा] आत्मा [सदा] हमेशां [ एकः] एक, [शाश्वतिकः] शाश्वत, [विनिर्मलः] विशेष निर्मळ (अने) [साधिगमस्वभावः] ज्ञानस्वभावमय छे, [अन्य ] अन्य [समस्ताः] सर्व [बहिर्भवाः] बहार रहेला पदार्थो [न शाश्वताः] शाश्वत नथी, [कर्मभवाः] कर्म निमित्त मात्र छे तथा [स्वकीयाः] स्वयं पोतपोताथी छे।
विशेषार्थ आत्मा शुद्धज्ञान स्वभावी छे, आत्माथी भिन्न जे पर पदार्थो छे ते सर्वे पोतपोताना कारणे पोतानी अवस्था धारण करे छे। ते पर पदार्थो जीवने कांइ लाभ-नुकसान करी शकता नथी; अने आत्मा तेमने कांई करी शकतो नथी। माटे परथी लाभ-नुकसान थाय छे एवी मान्यता प्रथम छोडी दई जे जीव पोताना आत्माना शुद्धज्ञान मात्र स्वभावनो निर्णय करे छे ते ज पोताना आत्मामां स्थिरतारूप सामायिक प्रगट करी शके छे एम आ श्लोकमां दर्शाव्युं छे ।२६।
आत्मानुं परथी भिन्नपणुं विचारे छे:यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि सार्द्ध तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्रैः। पृथक् कृते चर्मणि रोमकूपाः कुंतो तिष्ठन्ति शरीरमध्ये।।२७।।