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प्रतिक्रमण-आवश्यक ]
[१५६ [मम] मारा [न सन्ति ] नथी; [अहं] हुं [कदाचन ] कदापि [तेषाम् ] तेमनो [न भवामि ] थइ शकतो नथी; [इत्थं] ए प्रमाणे [विनिश्चित्य] बराबर निश्चय करीने [भद्र ! ] हे भद्र ! [त्वं] तुं [बाह्यं] बाह्यभाव [विमुच्य] संपूर्ण पणे छोडी [मुक्तयै] मुक्ति अर्थे [सदा] सदाय ' [स्वस्थः] स्वस्थ [ भव] था।
विशेषार्थ १. विकल्प, राग-द्वेष, शुभ-अशुभभाव, शरीर वगेरे पदार्थो अने अन्य जीवो-ए सर्व तारा आत्माथी बाह्य छे; माटे ते तरफनुं ममत्व तजी तारा आत्मा प्रत्ये लक्ष करीने स्थिर था। आथी तारा आत्मामां शुद्ध दशा प्रगटशे।
२. 'विनिश्चित्य' शब्द एम सूचवे छे के स्व-परना भेदज्ञाननो निश्चय करवानी जीवने खास जरूर छे; स्व-परनुं स्वरूप समज्या विना कदापि भेदज्ञान थाय नहि, अने भेदज्ञान विना कदापि धर्म थइ शके नहि; माटे तेनो निश्चय करी, ते निश्चयने दृढ करवानुं अहीं कयुं छे ।२४।
आत्मध्याननी स्थिरताथी समाधिनी प्राप्ति :आत्मानमात्मन्यवलोक्यमान, स्त्वं दर्शनज्ञानमयो विशुद्धः। एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र, स्थितोऽपि साधुर्लभते समाधिम् ॥२५॥
अन्वयार्थ :-[आत्मनि ] पोतानामां [आत्मानम् ] पोताना आत्माने [अवलोक्यमानः] अवलोकनार [त्वं] तुं [ दर्शनज्ञानमयः] दर्शनज्ञानमय [विशुद्धः] विशुद्ध छ; [एकाग्रचित्तः] एकाग्रचित्तवाळो [साधुः] साधु [ यत्र तत्र ] गमेत्यां [स्थितोऽपि] स्थित होवा छतां पण [खलु] निश्चये [समाधिम् ] समताभावने [लभते] प्राप्त करे छ।