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[प्रतिक्रमण-आवश्यक ____ अन्वयार्थ :- [भद्र ! ] हे भद्र ! [यतः] ज्यां [समाधिसाधनं] समाधि के सामायिकनुं साधन [न संस्तरो] नथी आसन (पाथरपुं) (के) [न लोकपूजा] नथी लोकनी पूजा [न संघमेलनम् ] के नथी संघनी संगति, [ततः] त्यां [साम् अपि बाह्यवासनाम्] सर्वे बाह्यवासनाओ [विमुच्य] तजी [अध्यात्मरतः] अध्यात्मलीन [अनिशं] . निरंतर [भव] थाओ।
विशेषार्थ १. आत्मानो शुद्ध पर्याय ते सामायिक छ । तेनुं साधन अंतरमा छे; कोई बाह्य पदार्थ नहि। पाथरपुं (कटासन) लोकपूजा के संघ वगेरे बाह्य वस्तुओ सामायिकनुं साधन नथी। माटे ते सर्व तरफथी दृष्टि-लक्ष खेची आत्मा तरफ वाळवू अने तेमां स्थिर थर्बु ते खरंनिश्चय-सामायिक छे; एवी सामायिक करवानी अहीं भावना करी छ। निज स्वरूप संबंधी विकल्प बाह्य पदार्थना लक्षे थाय छे तेथी ते बाह्य छे; माटे ते विकल्प छोडी निर्विकल्प स्वरूपमां रत-लीन थवानुं अहीं कह्यु छ।
२. जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वभावरूप परमार्थभूत ज्ञानपरिणमन मात्र एकाग्रता लक्षणवाळु अने शुद्धात्मस्वरूप छे ते ज साची (निश्चय) सामायिक छे; ते मोक्षनुं कारणभूत छ।—जुओ गुजराती समयसार गाथा १५४नी टीका पृ. २००।२३।
मुक्ति माटे आत्मस्वभावमां स्वस्थ थवानो उपदेश :न सन्ति बाह्या मम केचनार्था, भवामि तेषां न कदाचनाहम्। इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्यं, स्वस्थः सदा त्वं भव भद्र ! मुक्त्यै ॥२४॥
अन्वयार्थ :-[बाह्याः केचन अर्थाः] बाह्य कोइ पण पदार्थो