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प्रतिक्रमण - आवश्यक ]
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(परद्रव्यरूप) पुद्गल द्रव्योनो स्कंध छे अने ते आत्माने लाभ - नुकसान करी शके नहि, तेम ज आत्मा तेनो नाश करी शके नहि । जे स्थळे पुद्गल इन्द्रिय छे ते ज स्थळे ते पुद्गल इन्द्रियना आकारे आत्मप्रदेशोनी रचना होय छे ते चेतन द्रव्येन्द्रिय कहेवाय छे। ते पण आत्माने लाभ-नुकसान करती नथी।
चेतन द्रव्येन्द्रिय द्वारा पर द्रव्योने जाणवानी क्षयोपशमरूप शक्ति भावेन्द्रिय छे; आ भावेन्द्रिय जो के आत्माना ज्ञाननो उघाड छे तो पण ते आत्मानो स्वभाव-भाव नथी ।
सम्यग्दृष्टि, आत्मानी अपूर्ण अवस्थाने, परमार्थे पोतानी अवस्था तरीके स्वीकारता नथी; तेथी पुरुषार्थवडे क्रमेक्रमे भावेन्द्रियने टाळीने अर्थात् तेना तरफना उपयोगने टाळी निजस्वरूपमां स्थित थई संपूर्ण केवलज्ञान प्राप्त करे छे ।
आ रीते, भावेन्द्रिय, जीवनो स्वभाव - भाव नहि होवाथी अने ते द्वारा थतो वेपार रागद्वेषमय होवाथी ते पर्यायने आत्मानो शत्रु गणीने तेने टाळवानो अहीं उपदेश आप्यो छे ।
५. प्रथम सम्यग्दर्शन थतां मान्यतामां भावेन्द्रिय जीताई जाय छे अने त्यार पछी ते सम्यग्दृष्टि जीव पुरुषार्थ वधारी जेटले अंशे रागद्वेष टाळे छे तेटले अंशे भावेन्द्रिय अने कषाय, चारित्र अपेक्षाए हाय छे। कषाय सर्वथा टाळतां आत्मानी क्षीणकषायी अवस्था प्रगटे छे, अने त्यार बाद अल्पकाळमां केवलज्ञान प्रकट थाय छे त्यारे भावेन्द्रियो सर्वथा हणाइ जाय छे । २२।
बाह्य वासना छोडी आत्मामां लीनता ए सामायिक :
न संस्तरो भद्र! समाधिसाधनं, न लोकपूजा न च संघमेलनम् ।
यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं, विमुच्य सर्व्वामपि बाह्यवासनाम् ।। २३ ।।
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