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[प्रतिक्रमण-आवश्यक अन्वयार्थ:-[यत्र] ज्यां [मरीचिमालि] सूर्यनो प्रकाश [न विद्यमान] विद्यमान न होवा छतां [भुवन अवमासि बोधमयप्रकाशं] (त्यां) त्रण लोकने प्रकट जाणनार ज्ञानरूप प्रकाश [विमासते] प्रकाशे छे, (अने) [स्वात्मस्थितं] जे पोताना आत्मामां सुस्थित छे [तं आप्तदेवं] एवा आप्त देवना शरणने [प्रपद्ये] हुं प्राप्त थाउं छु।
विशेषार्थ निश्चयथी पोतानो आत्मा ज आप्तदेव छे अने तीर्थंकर देव के सिद्ध भगवंत तो निमित्त मात्र छ ने तेथी ते व्यवहारे आप्तदेव छ। जेवी रीते तीर्थंकरदेव तथा सिद्ध भगवान निश्चयथी पोते पोताना ज आप्तदेव छे तेवी रीते दरेक जीव पण निश्चयथी पोतपोताना आप्तदेव छे एम आ श्लोकमां दर्शाव्युं छे ।१६।। . . परमात्माना शरणनी भावना चालु :- ..... विलोक्यमाने सति यत्र विश्वं, विलोक्यते स्पष्टमिदं विविक्तिम् ।
शुद्धं शिवं शान्तमनाद्यन्नतं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥२०॥ ... अन्वयार्थ :-[यत्र] ज्यां [विलोक्यमाने सति] (ज्ञानमां) देखवावडे [इदं] आ [विश्वं] विश्व-जगत [विविक्तं] भिन्नभिन्नपणे [स्पष्टम् ] अत्यंत स्पष्टपणे [विलोक्यते] देखाय छे, (तथा जे) [ शुद्धं] शुद्ध छ; [शिवं] कल्याणरूप स्वरूप छे, [शान्तम् ] शांत छे (अने) [अनादि-अनन्त] अनादि अनंत छे [तं आप्तदेवं शरणं] तेवा आप्तदेवना शरणने [प्रपद्ये ] हुं प्राप्त थाउं छु ।
विशेषार्थ : १. विश्व-छ द्रव्यो (जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ) तथा ते सर्वना गुण अने पर्यायो।