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प्रतिक्रमण-आवश्यक ]
[१५३ बंध थाय छे; केमके भावकर्म वडे जीवनुं ज्ञान विकारमां अटकी जाय छे; द्रव्यकर्म तो निमित्त मात्र छ। १७। हवे चार गाथामां परमात्माना शरणनी भावना करवामां आवे छे :
न स्पृश्यते कर्मकलङ्कदोषै,-र्यो ध्वान्तसंधैरिव तिग्मरश्मिः। निरञ्जनं नित्यमनेकमेकं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥१८॥
अन्वयार्थ :- [तिग्मरश्मिः] सूर्य- किरण [वान्तसंधैः] अंधकारना समूहवडे [न स्पृश्यते] स्पर्शातुं नथी [इव] (तेनी) जेम [यः] जे [कर्मकलङ्कदोषैः] कर्मकलंकरूप दोषोवडे [न स्पृश्यते] स्पर्शातो नथी, (अने) [निरञ्जनं] जे कर्मरूप अंजनथी रहित छे, [नित्यं] नित्य छे [अनेकं] गुण, पर्याय अपेक्षाए अनेक, [एकं] द्रव्य अपेक्षाए एक छे [तं आप्तदेवं शरणं] तेवा आप्तदेवना शरणने [प्रपद्ये] हुं प्राप्त थाउं छु।
विशेषार्थ ... आत्माने पोताना स्वभाव सिवाय बीजं कोई, जगतमां शरणरूप नथी; परंतु ज्यारे राग होय त्यारे सुपात्र जीवोनुं लक्ष वीतराग भगवान प्रत्ये जाय छे तेथी निमित्तरूपे भगवाननुं शरण छ। आ प्रमाणे निश्चय-व्यवहार शरणर्नु स्वरूप समझदुं ।१८।।
अढारथी एकवीश सुधीना चार श्लोकमां व्यवहार शरण, स्वरूप कह्यु छ; अने बावीशथी छवीश सुधीना पांच श्लोकमां निश्चय शरणर्नु स्वरूप कडुं छे।
परमात्माना शरणनी भावना चालु :विभासते यत्र मरीचिमालि, न विद्यमाने भुवनावभासि। स्वात्मस्थितं बोधमयप्रकाशं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥१६॥