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प्रतिक्रमण-आवश्यक ]
[१५५ २. शिव-उपद्रव्यरहित, कल्याणस्वरूप परमात्मदशा; राग आदि ते उपद्रव छ।
३. शान्त=निराकुलतारूप आह्लाद-आनंद; लोको जेने आनंद के शांति माने छे ते तो आकुलतारूप रति छे अर्थात् दुःख छ। २० ।
परमात्माना शरणनी प्रार्थना चालु :येन क्षता मन्मथमानमूर्छा, विषादनिद्राभयशोकचिन्ता। क्षयोऽनलेनेव तरुप्रपञ्च-स्तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥२१॥
अन्वयार्थ :-[तरुप्रपञ्चक्षयः] वृक्ष-समूहनो क्षय [अनलेन] अग्निवडे [इव] जेम (थाय छे तेम) [मन्मथमानमूर्छाविषादनिद्राभयशोकचिन्ता] काम, मान, मूर्छा, खेद, निद्रा, भय, शोक, चिन्ता [येन क्षताः] जेमणे क्षय कर्या छे [तं आप्तदेवं शरणं] तेवा आप्तदेवना शरणने [प्रपद्ये ] हुं प्राप्त थाउं छु।
विशेषार्थ ___ आ श्लोकमां आप्त पुरुष, विशेष स्वरूप कडुं छे अने तेमनुं शरण प्राप्त करवानी भावना करी छे। खरी रीते तो पोताना शुद्धात्मस्वरूपना ध्यानरूप अग्निवडे पोतामां कामादि विकारो टळी जाओ एवी भावना छ।
सामायिक माटे आसन:न संस्तरोऽश्मा न तृणं न मेदिनी, विधानतो नो फलको विनिर्मितः। यतो निरस्ताक्षकषायविद्विषः, सुधीभिरात्मैव सुनिर्मलो मतः॥२२॥
अन्वयार्थ :-[विधानतः] विधितरीके [न अश्माः] न तो शीला . [न तृणं] न तो घास, [न मेदिनी] न तो पृथ्वी [नो फलको] न. तो लाकडानी पाट, [संस्तरो] आसन (तरीके) [विनिर्मितः] नियत