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[प्रतिक्रमण-आवश्यक [यः] जे [अन्तर्गतः] अंतरंगमां प्राप्त छे, [योगिभिः] योगियोवडे [निरीक्षणीयः] सूक्ष्मपणे देखावा योग्य छे [सः] ते [ देवदेवः] देवाधिदेव [मम] मारा [ हृदये] हृदयमां [आस्ताम् ] बिराजो।
विशेषार्थ १. पोताना शुद्ध स्वरूपनी प्राप्तिने उपचारथी देवाधिदेवनी प्राप्ति कहेवामां आवे छे। तीर्थंकर देव पर छे; तेओ कांइ बीजा जीवोमां प्रवेश करी शके नहि, पण तेमनो भाव अने पोतानो भाव एक ज प्रकारनो थाय ते तीर्थंकर देवनी अंतरंग प्राप्ति छ।
२. जेओ पोताना स्वरूपने ओळखी पोतामां लीन रहे छे ते 'योगी' कहेवाय छ।
३. भव ते ज दुःखनी जाळ छे; आत्माना स्वरूपमां भव नथी; तेथी सम्यग्दृष्टिने भवनी शंका थाय नहि। सम्यग्दर्शन थतां संसारचक्र टळी जाय छ। भय ते जीवनो विकारभाव छे; सम्यग्दृष्टि जीवोने ते विकारना स्वामित्वनो नकार छे तेथी अल्पकाळमां ज तेनी मुक्ति थाय छे। ज्यां मिथ्यात्व होय त्यां भव होय ज। सम्यग्दर्शन होय त्यां भवभ्रमण कदी होय ज नहि।१४।
देवाधिदेवनी स्तुति चालु :विमुक्तितमार्गप्रतिपादको यो, यो जन्ममृत्युव्यसनाद्यतीतः। त्रिलोकलोकी विकलोऽकलङ्कः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१५॥
अन्वयार्थ :- [यः] जे [विमुक्तिमार्गप्रतिपादकः] मोक्षना प्रतिपादक छे, [यः] जे . [जन्ममृत्युव्यसनात् ] जन्म-मरणरूप विपत्तिओथी [अतीतः] रहित छे, [त्रिलोकलोकी] त्रण लोकने जोनारा छे [विकलः] शरीर रहित छे (अने) [अकलङ्कः ] कलंक रहित छे [सः]