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________________ प्रतिक्रमण - आवश्यक ] [ १४६ [ समाधिगम्यः ] विकारबाह्यः] समस्त संसारी विकारी भावोथी पर छे, अभेद रत्नत्रयरूप निर्विकल्प समाधिद्वारा गम्य छे, [ परमात्मसंज्ञः ] परमात्मा संज्ञाथी प्रसिद्ध छे [सः ] ते [ देवदेवः ] देवाधिदेव [ मम ] मारा [हृदये ] हृदयमां [आस्ताम् ] बिराजमान थाओ । विशेषार्थ आ श्लोकमा 'पोताना शुद्ध पूर्ण स्वभावरूप परमात्मानी प्राप्तिनी भावना छे । ज्यां भगवान बिराजमान होय त्यां पाखंड होय नहि। मिथ्यात्व मोटामां मोटुं पाखंड छे; तेने जे जीव टाळे ते ज पोताना शुद्ध पर्यायो प्रगट करी शके । भगवान तो वीतराग छे । पुण्यभाव पण तेमने नथी; तेथी भगवाननो भक्त प्रशस्त राग अर्थात् पुण्य भावने धर्म के धर्मनो सहायक माने नहि; तेनी दृष्टिमां रागनो आदर होय ज नहि । साधक अवस्थामां जीवने राग धाय खरो पण भगवाननो भक्त तेने धर्म मानतो नथी, तेथी ते, रागनो अल्पकाळमां नाश करशे, रागथी अर्थात् पुण्यथी धर्म थाय के पुण्यधर्ममां सहायक थाय एवी जेने मान्यता होय ते भगवाननी खरी स्तुति के भक्ति करता नथी पण मिथ्यात्वनी स्तुति के भक्ति करे छे; अज्ञानना कारणे ते पोते भगवाननी स्तुति के भक्ति करे छे एम माने छे । १३। देवाधिदेवनी स्तुति चालु : निषूदते यो भवदुःखजालं, निरीक्षते यो जगदन्तरालं । योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः, स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१४॥ अन्वयार्थ ः—–[यः] जे [ भवदुःखजालं ] भवरूप दुःखनी जाळनो [ निषूदते ] विध्वंस करे छे [ यः ] जे [ जगत् अन्तरालं ] जगतनी भीतरमा रहेली वस्तुने [ निरीक्षते ] निरीक्षण करे छे- सूक्ष्मपणे जुए छे,
SR No.009232
Book TitlePratikraman Aalochana Samayik Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Mumukshu Mahila Mandal
PublisherJain Mumukshu Mahila Mandal
Publication Year2002
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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