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[प्रतिक्रमण-आवश्यक इन्द्रैः] सर्व मनुष्य, चक्रवर्ती, देव अने इन्द्रोवडे [स्तूयते] स्तवाय छे, [यः] जे [वेदपुराणशास्त्रैः] द्वादशांगरूप वेद-पुराण आदि शास्त्रो वडे [गीयते] गवाय छे [सः] ते [ देवदेवः] देवाधिदेव [मम] मारा [ हृदये] हृदयमां [आस्ताम्] बिराजमान थाओ।
विशेषार्थ १. जे आत्मा निजस्वरूप समझे ते ज परमात्मानुं सत्यस्वरूप समझी शके अने ते ज तेमनी स्तुति करी शके। आ श्लोकमां कहेल स्तुति व्यवहारनये छे, एटले के ते शुभ रागरूपे छ ।
२. परमात्मानी निश्चय स्तुतिनुं स्वरूप श्री समयसारनी गाथा '३१' थी '३३' मां अने तेनी टीकामां कडुं छे त्यांथी समझी
लेईं।
३. आत्माना स्वरूपनुं जेने भान होतुं नथी तेने व्यवहारस्तुति पण होती नथी; तेवाओना शुभभाव ते व्यवहाराभासी स्तुति
छ ।
४. वेदनो अर्थ शास्त्रज्ञान छे; चार अनुयोगने वेद कहेवामां आवे छे। प्रथमानुयोगने पुराण कहेवामां आवे छे। बाकीना त्रण (करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग)ना कथनने शास्त्रो कहेवामां आवे छे । १२।
देवाधिदेव-परमात्मानी स्तुति चालु :यो. दर्शनज्ञानसुखस्वभावः, समस्तसंसारविकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः, स देवदेवो हृदये मास्ताम् ।।१३।।
अन्वयार्थ :-[यः] जे [दर्शनज्ञानसुखस्वभावः] अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान अने. अनंत सुख-स्वभावना धारक छे, [समस्तसंसार