________________
[१५१
प्रतिक्रमण-आवश्यक ] ते [ देवदेवः] देवाधिदेव [मम] मारा [हृदये] हृदयमां [आस्ताम् ] बिराजमान थाओ।
विशेषार्थ .. आ श्लोकमां 'विकल' विशेषण वपरायेल छे, तेथी आ स्तुति
शरीर-रहित सिद्ध भगवंतने करायेली छे एम समझg; खरी रीते तो पोते सिद्धावस्था प्राप्त करे तेवी अहीं भावना छ।१५।
__परमात्मानी स्तुति चालु :क्रोडीकृताशेषशरीरिवर्गा, रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः। निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१६॥
अन्वयार्थ :- [अशेषशरीरिवर्गाः] समस्त संसारी जीवोए [क्रोडीकृताः] जेमने पोताना मान्या छे अर्थात् अपनाव्या छे ते [रागादयः] राग आदि [दोषाः] दोषो [यस्य] जेमने [न सन्ति] नथी, [निरिन्द्रियः] (जे) पांच इन्द्रियो अने मनथी रहित छे [ज्ञानमयः] ज्ञानमय [अनपायः] अविनाशी छे [ सः] ते [ देवदेवः] देवाधिदेव [मम] मारा [हृदये] हृदयमां [आस्ताम्] बिराजमान थाओ।
विशेषार्थ जे, मोह, राग-द्वेषने पोताना माने ते मिथ्यादृष्टि संसारी जीव छे एम आ श्लोकमां कहुं छे; सम्यग्दृष्टि रागादिने पोताना मानतो नथी, तेथी ते संसारनो अंत करे छ। मिथ्यादृष्टिपणुं ते ज संसारनुं मूळ छ। भगवाने ते मूळनो नाश करी भगवत् दशा प्रगटावी छ । सर्व जीवो शक्तिरूपे भगवान छ। जे पोताना तेवा स्वरूपने ओळखी, संसारना मूळरूप मिथ्यात्वने टाळे ते क्रमशः आगळ वधी