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प्रतिक्रमण-आवश्यक]
[१४१ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र संबंधी दोषोनुं प्रायश्चित:विमुक्तिमार्गप्रतिकूलवर्तिना, मया कषायाक्षवशेन दुर्धिया। चारित्रशुद्धेर्यदकाहरि लोपनं, तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं प्रभो ॥६॥
अन्वयार्थ :- [प्रभो !] हे प्रभु! [विमुक्तिमार्गप्रतिकूलवर्तिना] मोक्षमार्गथी प्रतिकूल वर्तन करनार [मया] मारा वडे [दुर्धिया ] दुर्बुद्धिद्वारा [कषाय-अक्षवशेन] कषाय अने इन्द्रिय वश [चारित्रशुद्धे ] चारित्र-शुद्धिनुं [यद्] जे . [ अकारिलोपनं] लोपन कर्यु होय [तद् ] ते [मम] मारु [दुष्कृतं] दुष्कृत्य [मिथ्या] मिथ्या [अस्तु] हो-थाओ।
विशेषार्थ १. जे जीव यथार्थ मोक्षमार्ग समझे ते ज मोक्षमार्गथी प्रतिकूळ शुं छे ते समझी शके; माटे आत्मार्थीओए शुभ रागने मोक्षमार्ग नहि मानतां निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपे मोक्षमार्ग समझवो जोइए।
२. कषायनो अर्थ मिथ्यादर्शन, अज्ञान अने राग-द्वेष थाय छ: माटे अज्ञान दशामां जे राग-द्वेष सेव्यां होय ते तथा सम्यग्दर्शन प्रगट थया पछी जे राग-द्वेष कर्यां होय ते दुष्कृत्य मिथ्या थाओ एवी अहीं भावना छ ।
३. पोते आत्मलक्ष चूकीने इन्द्रियोने वश थयो हतो अने तेथी राग द्वेषादि दुष्कृत्य कर्यां हतां तेनुं अहीं प्रायश्चित छ। जड इन्द्रियो जीवने कांई गुण-दोष के लाभ-नुकसान करती नथी पण जीव पोते ते तरफ वलण करे छे ते ज दुष्कृत्य छ। आत्मानुं स्वरूप समज्या विना कोई आत्मा साचो जितेन्द्रिय थई शके नहि; केमके अज्ञानी जीव इन्द्रियोथी पोताने दुःख थाय छे एम माने
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