________________
१४२]
[प्रतिक्रमण-आवश्यक छे तेथी ते त्याग द्वेषपूर्वक ज होय छे अने तेने दुष्कृत्यनो साचो त्याग होतो नथी।
४. शुद्धभाव ते सुकृत्य छे; पुण्य अने पाप ए बन्ने भावो दुष्कृत्य छे।६।
सर्व पापोनी आलोचना-निंदा-गर्दा:विनिन्दनालोचनगर्हणैरहं, मनोवचःकायकषायनिर्मितम् । निहन्मि पापं भवदुःखकारणं, भिषग्विषं मन्त्रगुणैरिवाखिलम् ।।७।।
अन्वयार्थ :-[भिषग्] वैद्य [मंत्रगुणैः] मंत्र गुणो वडे [ विषं] विषे (दूर करे छे ते) [इव] माफक [अहम् ] हुं [ भवदुःखकारणम् ] भव दुःखना कारणरूप [मनःवचःकायकषायनिर्मित] मन, वचन अने कायना निमित्ते कषाय द्वारा उत्पन्न करेला [अखिल ] समस्त [पाप] पाप [विनिन्दन आलोचन गर्हणेः] विशेष, निन्दा, आलोचना अने गर्हणावडे [निहन्मि] नाश करुं छु ।
विशेषार्थ १. मन, वचन अने काया पुद्गलपिंड छे; तेओ जीवने कांइ लाभ के नुकसान करतां नथी; पण ज्यारे जीव पोते पोताना दोषना कारणे ते तरफ लक्ष करे छे त्यारे पोतानामां विकार थाय छ। पर-लक्ष विना विकार थाय नहि; ज्यारे विकार करे त्यारे क्यांक-पर उपर लक्ष होय ज छ। विकार वखते जीवे कइ पर वस्तु ऊपर लक्ष कयुं तेनुं ज्ञान कराववा माटे मन, वचन के काया वडे विकार को एम कहेवाय छे; आ कथन व्यवहारछ । व्यवहार-कथन, निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे कहेवामां आवे छे। मन, वचन, काय तो निमित्त मात्र छ; तेमना कारणे विकार थतो नथी।