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[प्रतिक्रमण-आवश्यक
पीडाया होय [तदा] तो [तत् ] ते [दुःअनुष्ठितं] दुष्कृत्य [मिथ्या] मिथ्या [ अस्तु] हो-थाओ।
विशेषार्थ १. आ श्लोकमां 'प्रमादत :-प्रमादथी शब्द घणो उपयोगी छे; केम के प्रमाद ज भावहिंसा छे अने भावहिंसा ए ज दोष छ। परजीवनुं शरीर छूटे के न छूटे, तेमना कटका थाय के न थाय ते आ जीवने आधीन नथी। आ जीवने आधीन पोताना भावों छ। पोताना भावमां प्रमाद थाय ते ज पोतानुं भावमरण होवाथी हिंसा छे अने ते दुष्कृत्य होवाथी ते मिथ्या थाओ एवी भावना करी छ।
२. पर जीवनुं जीवन के मरण तेना आयुष्यने आधीन छे अने तेना आयुष्य प्रमाणे ज जीव- जीवन-मरण थाय छे; माटे पर जीवना जीवन के मरण, सुख के दुःख वगेरे आ जीवने बंधना कारण नथी, परंतु पोताना विकारी भाव ज बंधनुं कारण छे।
३. श्री जिनेन्द्रदेवे प्ररूपेल भावहिंसान स्वरूप ज खरी हिंसा छे लोको जेने हिंसा कहे छे ते हिंसानु खरुं स्वरूप नथी। जीव पोताना भावमा प्रमाद सेवे छे ते ज हिंसा छ। जीवनी प्रमाद दशानुं निमित्त पामीने बीजा जीवोने दुःख थाय छे अने तेमना शरीरनो वियोग थाय छे ते द्रव्यहिंसा छे; बंधनुं कारण भाव हिंसा ज छे, द्रव्यहिंसा नथी। भाव हिंसा वखते द्रव्यहिंसा थाय तो तेने निमित्त कारण कहेवाय।
४. जे जीव आत्मानुं शुद्ध स्वरूप समझे ते ज दुष्कृत्य शुं छे ते समझी शके ।५।