________________
प्रतिक्रमण-आवश्यक]
[१३६ इच्छे छे तेथी भगवान प्रत्येना बहुमानना कारणे उपचारथी कथन कर्यु छ।
२. सदा लीन थवानी भावना अहीं करी छे ते एम बतावे छे के ज्ञानीने शुभ भाव राखवानी भावना नथी पण ते छेदीने शुद्ध भावमां लीन थवानी भावना छ ।
३. आ श्लोकमां 'तमः मोह-अंधकार' शब्द वापर्यो छे ते एम सूचवे छे के मिथ्यादर्शन अने मिथ्याचारित्ररूप मोह टाळवामां भगवाननुं वीतरागी विज्ञान ज निमित्त होई शके; अज्ञानीओनुं ज्ञान मिथ्या होवाथी धर्ममां ते कदी पण निमित्त थइ शके नहि । ____४. सर्वज्ञ वीतराग देवना द्रव्य-गुण-पर्याय, स्वरूप यथार्थपणे जे न जाणे तेनो मिथ्यात्वदर्शन अने मिथ्यात्वचारित्र रूप मोह कदी टळे नहि अने जे यथार्थपणे जाणे तेनो मोह टळ्या वगर रहे नहि एम आ श्लोक सूचवे छ ।
५. लीन, कीलित, स्थिर, निषात अने बिम्बित-शब्दो सम्यक् चारित्रनी दृढता करवानी भावना सूचवे छ ।४।
पूर्व करेल प्रमाद- प्रायश्चित :एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः प्रमादतः संचरता इतस्ततः। क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडिता तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥५॥ - अन्वयार्थ :- [ देव ! ] हे जिनेन्द्र प्रभु! [प्रमादतः] प्रमादपूर्वक [इतः] अहीं [ततः] तहीं [संचरता] फरता-हरता थका [ एकेन्द्रियाद्याः] एकेन्द्रिय आदि [ देहिनः] प्राणीओ [यदि] जो [क्षताः] हणाया होय, [विभिन्नाः] शरीरथी भिन्न कराया होय, [मिलिता] एक बीजामां भेगां कराया होय (के) [निपीडिताः]