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[प्रतिक्रमण-आवश्यक ४. आ श्लोकमां 'सदापि-सदाय' शब्द वापर्यो छे तेनो अर्थ पहेला श्लोकनी टीकामां जणाव्यो छे ते मुजब अहीं समझवो । ३ ।
माझं लक्ष सदाय ज्ञान तरफ ज रहो एवी भावना :मुनीश ! लीनाविव कीलिताविव, स्थिरौ निषातविव बिम्बिताविव । पादौत्वदीयो मम तिष्ठतां सदा, तमोधुनानौ हृदि दीपकाविव ॥४॥ __ अन्वयार्थ :-[मुनीश] हे मुनिओना स्वामी--जिनेश! [त्वदीयौ पादौ] आपना बन्ने चरण कमळ [मम] मारा [हृदि] हृदयमां [सदा] हमेशा (एवी रीते) [तिष्ठताम्] रहो के [लीनौ इव] जाणे लीन थयां होय, [कीलितौ इव] (खीला माफक) जाणे जडाई गयां होय [स्थिरौ इव] जाणे स्थिर थई गयां होय [निषातौ इव] जाणे बेसाडी दीधां होय [बिम्बितौ इव] जाणे बिंबसमान बनी गया होय [तमोधुनानौ] जाणे मोह-अंधकारने दूर करवा लायक [ दीपकौ इव] दीपक समान बनी गयां होय!
विशेषार्थ १. आ श्लोकमां पोताना शुद्ध स्वरूपमा एकाकारपणे लीन थवानी भावना छ। अहीं जिनेन्द्र देवने उद्देशीने निमित्तथी कथन कर्यु छे; केमके सम्यग्दृष्टिने ज्यारे स्वरूपमां स्थिरता न होय त्यारे राग होय छे अने ते रागने लीधे तेनुं लक्ष भगवान आदि ऊपर जाय छे अने ते वखते विनयपूर्वक पोताना स्वरूप तरफ वळवानी भावना करे छे। भगवान तो पर द्रव्य छे तेथी तेमना चरणकमळ कोइ बीजा जीवमा प्रवेश करे, स्थिर थाय के एकरूप थाय के दीपक समान बनी जाय एम बने नहि। पण सम्यग्दृष्टि जीवो निज स्वरूपमां लीन थवा, स्थिर थवा, समाइ जवा के बिंबरूप थवा