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[प्रतिक्रमण-आवश्यक परथी पराङ्मुख थइ स्वनी प्राप्ति :
११. अर्थ :-हे देव! सर्व प्रकारना परिग्रहरहित, समस्त शास्त्रोनो ज्ञाता, क्रोधादि कषायरहित, शान्त, ओकांतवासी भव्य जीव, बधा बाह्य पदार्थोथी मन तथा ईंद्रियोने पाछा हठावी अने अखंड निर्मळ सम्यग्ज्ञाननी मूर्तिरूप आपमां स्थिर थइ, आपने ज देखे छे ते मनुष्य आपना सान्निध्य (समीपता) ने प्राप्त करे छे.
भावार्थ:-ज्यां सुधी मन तथा ईंद्रियोना व्यापार बाह्य पदार्थोमां जोडायेला रहे छे त्यां सुधी कोइ पण मनुष्य आपना स्वरूपने प्राप्त करी शकतो नथी; परंतु जे मनुष्य मन तथा ईंद्रियोने बाह्य पदार्थोथी पाछा हठावी ले छे ते वास्तविकपणे आपना स्वरूपने देखी अने जाणी शके छे. माटे जे मनुष्ये समस्त प्रकारना परिग्रहोथी रहित थइ, शास्त्रोना सारी रीते ज्ञाता थइ, शान्त अने अकांतवासी थइ, मन तथा ईंद्रियोने बाह्य पदार्थोथी पाछा हठावी लइ अने तेमने आपना स्वरूपमा जोडी दइ आपने जोइ लीधा छे, ते मनुष्ये आपना समीपपणाने प्राप्त कर्यु छे अम सारी रीते निश्चित छे.
स्वभावनी अकाग्रताथी उत्तमपद—मोक्षनी प्राप्ति:
१२. अर्थ:-हे अर्हत् प्रभु ! पूर्व भवमां कष्टथी संचय करेल महा पुण्यथी जे मनुष्य, त्रण लोकना पूजार्ह (पूजाने योग्य) आपने पाम्यो छे ते मनुष्यने, ब्रह्मा, विष्णु आदिने पण निश्चयपूर्वक अलभ्य अर्बु उत्तम पद प्राप्त थाय छे. हे नाथ ! हुं शुं करें? आपनामां अेक चित्त कर्या छतां मारुं मन प्रबळपणे बाह्य पदार्थो प्रत्ये दोडे छे ओ मोटो खेद छे. - भावार्थ:-हे भगवन् ! जे मनुष्ये आपने प्राप्त कर्या छे ते मनुष्यने उत्तम पदनी प्राप्ति थाय छे. स्वयं ब्रह्मा, विष्णु पण ते प्राप्त करी शकता नथी. परंतु हे जिनेन्द्र ! आ सर्व वात जाणतां छतां अने