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प्रतिक्रमण-आवश्यक ]
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तात्त्विक सुवाक्य दंसणमूलो धम्मो। धर्मनुं मूळ दर्शन छे. समयसार जिनराज है, स्याद्वाद जिन-वैन. हुं सच्चिदानंद परमात्मा छु. स्वरूपस्थित सद्गुरुदेवनो प्रभावना उदय जगतनुं कल्याण करो, जयवंत वर्तो. आत्मा पोतापणे छे अने परपणे नथी ओवी जे दृष्टि ते ज खरी अनेकांतदृष्टि छे. वह साधन बार अनंत कियो, तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो; अब कयों न बिचारत है मनसें, कछु और रहा उन साधनसें. दुर्लभ मनुष्यपणुं पामीने जे विषयोमा रमे छे ते राखने माटे रत्नने बाळे छे. महापुरुषनां आचरण जोवा करतां तेनुं अंतःकरण जोवू अ वधारे परीक्षा छे. गमे तेवा तुच्छ विषयमा प्रवेश छतां उज्ज्वल आत्माओनो स्वतः वेग वैराग्यमां झंपलाव, ओ छे. ज्ञानथी ज राग-द्वेष निर्मूळ थाय. ज्ञान- मुख्य साधन विचार छे. विचारदशानुं मुख्य साधन सत्पुरुषनां वचननु यथार्थ ग्रहण छे. गम पड्या विना आगम अनर्थकारक थई पडे छे. संत विना अंतनी वातमां अंत पमातो नथी. अंतर- सुख अंतरनी स्थितिमा छे, स्थिति थवा माटे बाह्य पदार्थोनं आश्चर्य भूल. समश्रेणी रहेवी दुर्लभ छे, निमित्ताधीन वृत्ति फरी फरी थई जाय छे. न थवा अचळ गंभीर उपयोग राख. शुद्ध उपयोग ओ धर्म; भावे भवनो अभाव.