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સમાધિમરણ
गृहीतः सुगतिमार्गः नाहं मरणाविभेमि ॥१९॥ अर्थ-क्षपक विचारता है कि मैंने प्रमाणनयसे अविरुद्ध सुखका कारण जो पूर्वमें नहीं पाया ऐसे जिनवचनको प्राप्त किया और मोक्षमार्ग भी ग्रहण किया । अब मैं मरणसे नहीं डरता ॥ भावार्थ-जबतक अज्ञान था तबतक यथार्थस्वरूप नहीं जाना इसलिये मरणका डर था, अब जिनवचनसे यथार्थ स्वरूपका ग्रहण हुआ, मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति हुई तब मरणका भय जाता रहा ॥९९॥
धीरेणापि मर्तव्यं निर्धेर्येणापि अवश्यं मर्तव्यं ।
यदि द्वाभ्यामपि मर्तव्यं वरं हि धीरत्वेन मर्तव्यम् ॥१०॥ अर्थ-क्षपक विचारता है कि धीर (दृढचित्त) भी मरेगा और धैर्यरहित भी अवश्य मरेगा । यदि दोनों तरहसे ही मरना है तो धीर (क्लेशरहित)पनसे ही मरना श्रेष्ठ है, कायरपनसे पापबंध विशेष करता है इसलिये मरणसमय कायर नहीं होना चाहिये ॥१००॥
शीलेनापि मर्तव्यं निःशीलेनापि अवश्यं मर्तव्यम् ।
यदि बाभ्यामपि मर्तव्यं वरं हि शीलत्वेन मर्तव्यम् ॥१०१॥ अर्थ-जो शील (व्रतकी रक्षा) वाले हैं वे भी मरेंगे और जो भूखप्यास आदिकी पीड़ासे मरण होनेके भयसे व्रत शील छोड़ देते हैं वे भी काल आनेपर अवश्य मरेंगे । यदि दोनों तरह से ही मरना है तो शीलसहित ही मरना अच्छा है । व्रतशील छोड देनेसे पापबंध अधिक होगा और मरना तो पड़ेगा ही ॥१०१॥ इसलिये शीलसहित ही मरना श्रेष्ठ है ऐसा कहते हैं;
चिरोपितब्रह्मचारी प्रस्फोट्य शेषं कर्म ।
आनुपूर्व्या विशुद्धः शुद्धः सिद्धिं गतिं याति ॥१०२।। अर्थ-जिसने बहुतकालतक ब्रह्मचर्यव्रत सेवन किया है ऐसा मुनि शेष ज्ञानावरणादि कर्मोंकी निर्जराकर क्रमसे अपूर्व अपूर्व विशुद्ध परिणामोंकर अथवा गुणस्थानके क्रमसे असंख्यातगुणश्रेणी निर्जराकर कर्मकलंकसे रहित हुआ केवलज्ञानादि शुद्ध भावोंकर युक्त होके परमस्थान मोक्षको प्राप्त होता है । ऐसे आराधनाका उपाय जानना ॥१०२॥ आगे आराधकका स्वरूप कहते है
निर्ममः निरहंकारः निष्कषायः जितेंद्रियः धीरः ।
अनिदानः दृष्टिसंपन्नः प्रियमाण आराधको भवति ॥१०३॥ अर्थ-जो मरणकरनेवाला ऐसा हो-चेतन अचेतन परवस्तुमें ममता (मोह) नहीं हो, अभिमान रहित हो, क्रोधादिकषाय रहित हो, जितेंद्रिय हो अर्थात् विषयसुखोंसे उदासीन तथा अतींद्रियसुखमें लीन हो, पराक्रम सहित हो, शिथिल न हो, भोगोकी वाछांकर रहित हो और