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મૂલાચાર”માંથી
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'भूलायार'मांथी“आगे मरणके समय पीडा हो तो कौनसी औषधि करना उसे कहते हैं;
जिनवचनमौषधमिदं विषयसुखविरेचनं अमृतभूतं ।
जरामरणव्याधिवेदनानां क्षयकरणं सर्वदुःखानाम् ॥१५॥ अर्थ-यह जिनवचन ही औषध है । जो कि इंद्रिय जनित विषयसुखोंका विरेचन करनेवाली (दूर करनेवाली) है, अमृतस्वरूप है और जरा मरण व्याधि वेदना आदि सब दुःखोंका नाश करनेवाली है। भावार्थ-जैसे औषधि रोगोंको मिटा देती है उसी तरह जिनवाणी भी जन्ममरण आदि दुःखोको मिटाके अमर पदको प्राप्त करदेती है । इसलिये अमृतऔषधि जिनवचन ही है ॥१५॥ आगे उस समय शरण क्या है यह बतलाते हैं;
ज्ञानं शरणं मम दर्शनशरणं च चारित्रशरणं च ।
तपः संयमश्च शरणं भगवान् शरणो महावीरः ॥१६॥ अर्थ-हे क्षपक तुझे ऐसी भावना करनी चाहिये कि, मेरे यथार्थ ज्ञान ही शरण (सहायक) है, प्रशम संवेग अनुकंपा आस्तिक्यकी प्रगटतारूप सम्यग्दर्शन ही शरण है, आस्रव बंधकी निवृत्तिरूप चारित्र ही मेरे शरण है, बारहप्रकार तप और इंद्रिय प्राण संयम ही शरण है तथा अनंत ज्ञान सुखादि सहित श्री महावीरस्वामी हितोपदेशी ही शरण हैं । इनके सिवाय अन्य कुदेवादिका शरण मेरे नहीं है । ॥१६॥ आगे आराधनाके फलको कहते हैं;
__ आराधनोपयुक्तः कालं कृत्वा सुविहितः सम्यक् ।
उत्कृष्टं त्रीन् भवान् गत्वा च लभते निर्वाणम् ॥१७॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन आदि चार आराधनाकर उपयुक्त हुआ अतिचार रहित आचरणवाला जो मुनि वह अच्छीतरह मरणकर उत्कृष्ट तीन भव पाकर निर्वाण (मोक्ष) को पाता है ॥९७॥ ऐसा सुनकर क्षपक कारणपूर्वक परिणाम करनेका अभिलाषी हुआ कहता है
श्रमणो मम इति च प्रथमः द्वितीयः सर्वत्र संयतो ममेति ।
सर्व च व्युत्सृजामि च एतदू भणितं समासेन ॥९८॥ अर्थ-क्षपक विचारता है कि मैं प्रथम तो श्रमण अर्थात् समरसीभावकर सहित हूं और दूसरे सब भावोमें संयमी हूं इसकारण सब अयोग्य भावोंको छोडता हूं । इसतरह संक्षेपसे आलोचना कहा ॥९८॥ आगे फिर दृढ परिणामोंको दिखलाते हैं:
लब्धमलब्धपूर्व जिनवचनसुभाषितं अमृतभूतं ।