SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ મૂલાચાર'માંથી ૩૪૫ सम्यग्दर्शनको अच्छी तरह प्राप्त हुआ हो । ऐसा जीव आराधक हो सकता है ॥१०३॥ आगे इसी बातका समर्थन करते हैं निष्कषायस्य दांतस्य शूरस्य व्यवसायिनः । संसारभयभीतस्य प्रत्याख्यानं सुखं भवेत् ॥१०४॥ अर्थ-ऐसे मुनिराजकी आराधना सुखका निमित्त होती है जो कषाय रहित हो, इंद्रियोंको वश करनेवाला हो, शूर हो कायर न हो, चारित्रमें उद्यमी लीन हो और संसारके भयसे डरता हो, चतुर्गतिके दुःखोके स्वरूपको जानता हो । ऐसा मरण करनेवाला आराधनाका आराधक हो सकता है ॥१०४॥ अब कथनको संकोचते हुए आराधनाका फल कहते हैं एतत् प्रत्याख्यानं यः कुर्यात् मरणदेशकाले । धीरो अमूढसंज्ञः स गच्छति उत्तमं स्थानम् ॥१०५॥ अर्थ-जो मुनि मरणके देशकालमें धैर्य सहित, आहारादिसंज्ञामें अलुब्ध हुआ (आहारादिको नहीं चाहता हुआ) इस प्रत्याख्यानको करता है वह मोक्षस्थानको प्राप्त होता है । आराधनाका फल निर्वाण है यह तात्पर्य जानना ॥१०५।। आगे अंतमंगलपूर्वक प्रार्थना करते हैं वीरो जरामरणरिपुः वीरो विज्ञानज्ञानसंपन्नः । लोकस्य उद्योतकरो जिनवरचंद्रो दिशतु बोधिम् ॥१०६॥ अर्थ-बुढापा तथा मरणके शत्रुको दूर करनेवाले, विशेष लक्ष्मीको देनेवाले, चारित्र और ज्ञानकर सहित, भव्यजीवोंके मिथ्यात्व अंधकारको मिटाके ज्ञानरूप प्रकाशका करनेवाले और सामान्य केवलियोंमें प्रधान चंद्रमाके समान आनंद करनेवाले ऐसे महावीर प्रभु चौबीसवें तीर्थंकर हमें समाधिकी प्राप्ति करावे । इस प्रकार अंतमंगलकर क्षपकको समाधिकी प्राप्तिके कारण महावीर स्वामीका स्मरण दिखलाया ॥१०६॥ या गतिः अर्हतां निष्ठितार्थानां या गतिः । या गतिः वीतमोहानां सा मे भवतु सर्वदा ॥११६॥ अर्थ-जो अरहंतोकी गति है, जो सिद्धोंकी गति है, जो वीतरागछद्मस्थोंकी गति है वही गति सर्वदा (हमेशा) मेरी भी हो । यही आराधनाका फल चाहता हूं अन्य नहीं ॥११६॥ आगे उत्तमार्थ त्यागका फल कहते हैं एकं पंडितमरणं छिनत्ति जातिशतानि बहूनि । तन्मरणेन मर्तव्यं येन मृतं सुमृतं भवति ॥११७॥ अर्थ-एक भी पंडितमरण सैकडों जन्मोंका छेदनेवाला है, इसलिये ऐसा मरण करना चाहिये जिससे मरना अच्छा कहलाये अर्थात् फिर जन्म नहीं धारण करना पडे ॥११७।। आगे मरणकालमें समाधिधारणका फल कहते है एकस्मिन भवग्रहणे समाधिमरणं लभते यदि जीवः । सप्ताष्टभवग्रहणे निर्वाणमनुत्तरं लभते ॥११८॥ अर्थ-जो यह जीव एक ही पर्यायमें संन्यास मरणको प्राप्त हो जाय तो सात आठ पर्यायें बीत जानेपर अवश्य मोक्षको पाता है ॥११८॥ यहां भावलिंगीके लिये ही कहा गया है।
SR No.009115
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParas Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2011
Total Pages351
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Rajchandra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy