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________________ गुरुदेव कहते हैं... इस दुनिया में सुविधा जितनी अधिक मिलती है आत्मा उतनी ही अधिक मलीन, परतंत्र और पराधीन बनती है। उसी प्रकार स्वार्थ और मोह में कैसे दुनिया के जीवों को जो समर्पित होता है उससे भी दीनता, पराधीनता और पाप की वृद्धि होती है। दुनिया को समर्पण करने में आत्मा की अवनति है। गुरु को समर्पण करने में आत्मा की आबाव उन्नति है। प्राणों से प्यारे गुरुदेव! हाथ पकड़कर संसार के विषय-कषाय और आरंभसमारंभ के कीचड़ से मुझे बाहर निकालने के बाद भी आपने मेरा हाथ नहीं छोड़ा, बल्कि संयमजीवन का दान करके उस जीवन में भी मैं कहीं गलती न कर बै→ इस हेतु जीवनभर के लिए उसे थामे रखा। बस, इस हाथ के सहारे ही आज मैं संयमजीवन के पालन में अनूठी प्रसन्नता महसूस कर रहा हूँ। आज इस धरती पर जब आप साक्षात् विद्यमान नहीं हैं तब आपश्री के समक्ष मैं यही याचना करता हूँ कि आपश्री ने मेरा हाथ यदि हमेशा थामे रखा है तो जीवन के अंतिम पल तक इस हृदय में मैं आपको जकड़कर ही रखू ऐसी सद्बुद्धि मुझे दीजियेगा / आपश्री ने संयमजीवन को विशुद्ध रखने के जो श्रेष्ठतम आदर्श एवं आलंबन मुझे दिये, उन आदर्शों और आलंबनों को मैं जीवन के प्रत्येक क्षण में स्मृतिपथ में अक्षुण्ण रख सकूँ. ऐसी कुशाग्र स्मृति मुझे दीजियेगा। इस विषय में मैं सफल बनूँ ऐसी शक्ति भी आपश्री ही मुझमें पैदा कीजियेगा। इससे ज्यादा आपश्री से मैं दूसरा कुछ माँगना भी नहीं चाहता... दूसरा कुछ प्राप्त करना भी नहीं चाहता। इतनी करुणा मुझ पर बरसाना गुरुदेव! आपका ही.... रत्नसुंदर MOH 60A0
SR No.008925
Book TitleJivan Sarvasva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasundarsuri
PublisherRatnasundarsuriji
Publication Year
Total Pages50
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size23 MB
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