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________________ गुरुदेव कहते हैं... पुण्य तो धोखेबाज है, कब धोखा दे जाए यह कहा नहीं जा सकता। पुण्य के होने मात्र से नये पुण्य का उपार्जन नहीं होता, पुण्य के माल को धर्म में लगाओ तो ही नये पुण्य की वृद्धि होती है। पुण्य का स्वभाव तो उदय में आकर विदा हो जाना है! ऐसे पुण्य में ही 'सुरक्षितता का अनुभव करना उचित नहीं है। आज वाचना में आप अत्यन्त प्रफुल्लितथे।चालू वाचना में आपने हमारे समक्ष एक प्रश्न रखा "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्", इस पंक्ति का अर्थ बताइए। हम सबको समझ में आ ही गया था कि हम जो भी अर्थ करेंगे, आज गुरुदेव उससे कुछ अलग ही अर्थ बतायेंगे। वरना, ऐसा सरल प्रश्न गुरुदेव हमें क्यों पूछते ! फिर भी एक मुनिवर ने जवाब दिया, "शरीर धर्म का प्रथम (मुख्य) साधन है।" गुरुदेव, यह जवाब सुनकर आपमुस्कुराते हुए बस इतना ही बोले, "आद्यं शरीरं खलु धर्मसाधनम्". इस प्रकार यदि पंक्ति की रचना की जाए तो इसका अर्थ यह होता है कि "प्रथम शरीर अर्थात् शरीर की प्रथम युवावस्था ही धर्म का साधन है"। और बात भी सच्ची ही है ना ? साधनाओं में यदि गति बढ़ानी है, तपस्या के क्षेत्र में अभिनव शिखर फतह करने हैं,खून-पानी एक करके स्वाध्याय कर लेना है तो यह सब युवावस्था में ही संभव है। आप सब अभी युवावस्था में ही हो ना? सत्व प्रकट कर साधनाएँ कर ही लेना!" गुरुदेव! शास्त्रपक्तियों के गूढ़ रहस्यों को प्रकट करने वाली आपकी निर्मल प्रज्ञा ने ही तो आपके वरद हस्तों से "परमतेज" जैसे नजराने स्वरुप ग्रंथ का सर्जन करवाया था ना!
SR No.008925
Book TitleJivan Sarvasva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasundarsuri
PublisherRatnasundarsuriji
Publication Year
Total Pages50
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size23 MB
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