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गुरुदेव कहते हैं....
मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं१. जड़-संपत्ति में ही सुरक्षितता
का अनुभव करने वाले-मूक मनुष्य। २. संपत्ति के कारणभूत पुण्य में
सुरक्षितता का अनुभव करने वाले-कुछ समझदार मनुष्य। ३. देव-गुरु-धर्म की शरण में
सुरक्षितता का अनुभव करने वाले-वास्तव में विवेकी मनुष्य ।
अवसर था तपोवन (नवसारी) में अंजनशलाका महोत्सव का। शताधिक पदस्थ-पूज्यों की उपस्थिति में महोत्सव अत्यन्त भव्यता से मनाया जा रहा था।
गुरुदेव, उन दिनों जब भी समय मिलता, आपकी वाचना चलती रहती थी। जीवनभर संयम की विशुद्धि हेतु जागृत एवं प्रयत्नशील रहने वाले आप, उन वाचनाओं में जो प्रभुवचन प्रस्तुत करते थे उन्हें सुनकर हम सभी आनन्दित हो जाते थे।
एक दिन संपूर्ण वाचना "रात्रिस्वाध्याय'' की महत्ता को केन्द्र में रखकर हुई। जबसे मुमुक्षुअवस्था में मैं आपके साथ रहा, मैंने देखा है कि आपश्री रात्रिस्वाध्याय के लिए कितने आग्रही रहे हैं।
अचानक वाचना के दौरान आपके मुख से शब्द निकल पड़े"रत्नसुंदर अब सयाना हो गया है ना! इसलिए उसने रात्रि-स्वाध्याय छोड़ दिया है। वरना, विशेषावश्यक भाष्य का उसका स्वाध्याय सुनकर तो मैं स्वयं आनन्दित हो जाता था। पर लगता है, अब वे दिन गये।"
गुरुदेव! आपके मुख से निकले इन शब्दों को सुनकर मैं इतनाशर्मिदा नहीं हुआ था जितना आनन्दित हो गया था । कितना पुण्य रहा होगा मेरा जो सौ से अधिक पूज्यों के बीच आपके ये शब्द मुझे सुनने को मिले थे।