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________________ गुरुदेव कहते हैं... "विनय" को आत्मसात् करने में कुल छ:प्रकार के लाभ है१.जिनाज्ञापालन की इच्छा का शुभभाव। २. नम्रता का शुभभाव। ३. उपकारियों के उपकारों के प्रति कृतज्ञभाव। ४.गुणवानों के गुणों का अनुराग, यह शुभभाव। ५. कर्मक्षय की इच्छा का शुभभाव। ६."धर्म की जड़ विनय है" अत: अन्य धर्म को लाने का शुभभाव। ऐसे शुभभावों का खजानारुप 'विनय धर्म' अगणित कमों एवं अन्य अनेक गुणों का लाभदाता है। "एक मामले में मैंमार खा गया हूँ।" गुरुदेव, आज आप आश्चर्यचकित कर देने वाले "मूड'' में थे। रात को हम चार-पाँच साधु आपके पास बैठे थे। आपने बात शुरू की थी। "क्यों, क्या हुआ?", हमने पूछा। "आज ऐसा लग रहा है कि वर्धमान तप की १०० ओलियाँ पूर्ण करने के बाद मुझे १०८ वी ओली तक नहीं पहुँचना चाहिए था।" "पर क्यों?" "क्योंकि अब १०९वीं ओली पूर्ण कर सकूँ ऐसा स्वास्थ्य नहीं है। यदि १००वीं ओली पूर्ण करने के बाद मैंने नये सिरे से पाया डाला होता ना, तो छोटी-छोटी कितनी ही ओलियाँ मैंने आसानी से पूर्ण कर ली होती! १०१ से १०८ ओली तक मैं पहुँचा तो सही, पर उसमें कुल मिलाकर आयंबिल हुए लगभग ८००, जबकि पाया डालकर ओलियाँ शुरु की होती तो आज तक कम-से-कम १५०० से २००० आयंबिल पूर्ण हो गये होते! अब इस शरीर मेंन १०९ वीं ओली करने की क्षमता है और न ही वर्धमान तप का पाया डालने की। गुरुदेव! आप गणलोभी तो थे ही, पर तपस्यालोभीभी थे। आप आराधना के लोभी तो थे ही, पर कर्मनिर्जरा में भी आपके लोभ का कोई अन्त नहीं था। ऐसे लोभ और लोभांधता, क्या आप हमें नहीं दे सकते गुरुदेव ?
SR No.008925
Book TitleJivan Sarvasva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasundarsuri
PublisherRatnasundarsuriji
Publication Year
Total Pages50
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size23 MB
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